आख़िरकार मैंने तय किया कि आज अपने स्टोर रूम की सफ़ाई कर ही लूँ। वो आख़िरी डिब्बा था जिसमें से फ़ालतू का सामान निकालना था। उन्हीं में एक पेंसिल बॉक्स हाथ लगा, जो मुझे कई छह साल पहले की एक घटना की याद दिला दिया।
सुब्ह के नौ बजे थे, दरवाज़े की घंटी बजी और किसी ने मेरा नाम पुकारा। वो अमित था—मेरा अच्छा दोस्त। उसे एक सादा-सी टी-शर्ट और शॉर्ट्स में देखकर थोड़ा अजीब लगा, क्योंकि वो आमतौर पर अच्छे कपड़े पहनने का शौक़ीन रहा है। वो मुझे अपनी बहन की बर्थडे पार्टी में बुलाने आया था जो उसी रात रखी गई थी। जल्दी में था, मुझे कार्ड थमाया और कहा कि शाम सात बजे तक आ जाना।
मुझे जन्मदिन की पार्टियों में ज़ियादा दिलचस्पी नहीं थी, लेकिन सिर्फ़ अमित के कहने पर तैयार हो गया। मेरे घर के पास एक दुकान थी, वहीं से एक तोहफ़ा लिया और सात बजे के क़रीब उसके घर पहुँच गया। मैंने तोहफ़ा अमित को दिया और उसने मुझे ड्राइंग रूम के सोफ़े पर बिठाया। फिर वो कुछ देर के लिए किचन में अपनी माँ की मदद करने चला गया। उसकी माँ— अरुणिमा—बहुत नेकदिल हैं। उन्होंने मुझे कभी ग़ैर नहीं समझा, बल्कि अपने बेटे जैसा ही माना।
वो कमरा किसी जन्नत से कम नहीं लग रहा था। मैंने अपनी ज़िंदगी में इतनी सजावट पहली बार देखी थी। दीवारों के रंग मुझे बहुत अच्छे लगे, और एक तरफ़ अमित के पूरे परिवार की बहुत प्यारी सी तस्वीर टँगी हुई थी। तभी मेरी नज़र फिर से स्नेहा पर पड़ी—पूरे दो साल बाद। उस दिन वो सत्रह की हो गई थी, मगर मैं अब भी बस अंदाज़ा ही लगा सकता था कि उसकी उम्र कितनी थी।
मैं सोच रहा था कि क्या उसकी ज़िंदगी में कोई सुधार आया, लेकिन दिल ने कहा—नहीं। इसका सबूत डाइनिंग टेबल पर रखी वो नोटबुक थी, जो मुझे यक़ीन था कि स्नेहा की ही थी। जब मैंने पन्ने पलटे, तो मुझे वो लड़की याद आ गई—जो अब भी हाशिये के बाएँ से लिखती है। जिसके अक्षर दरअस्ल अक्षर नहीं, बल्कि एक पहेली होते हैं। जिसके नाम वाले कॉलम में दो बार काटकर नाम सही से लिखा गया होता है। सब कुछ वैसा ही था जैसा दो साल पहले आख़िरी बार देखा था। वहाँ होना हमेशा मेरे लिए मुश्किल होता था, और मैं उस लड़की के लिए दिल से हमदर्दी रखता था।
वो मेरी हमउम्र थी, लेकिन हमारे दरमियान कुछ ऐसे अंतहीन फ़ासले थे जिन्हें शब्दों में बयाँ करना मुश्किल है। उसने दुनिया को अपनी अलग समझ से देखा था—एक ऐसी दुनिया जहाँ न कोई बूढ़ा होता है, न कोई जवान—हर इंसान उसकी नज़र में बस एक बच्चा था। एक ऐसी दुनिया जहाँ उसका टेडी बियर उससे बात करता है, उसे सुनता है, और उसकी बातों को महसूस भी करता है। वो अकेली तालिब-ए-इल्म थी, और उसकी माँ ही उसकी इकलौती उस्ताद।
इसी बीच हमारे कुछ दोस्त और अमित के रिश्तेदार पार्टी में शामिल हो गए। अमित अब पूरी तरह मेहमानों को स्नैक्स सर्व करने में व्यस्त था। मैंने थोड़ा बहुत खाया और फिर केक कटने का इंतज़ार करने लगा। अगला ही लम्हा वो था जब मैंने स्नेहा को देखा। उसकी माँ ने दोनों हाथों से अपनी बेटी को थाम रखा था—एक एहसास देने के लिए कि वो महफ़ूज़ है। मैं नहीं जानता कि उसने मुझे पहचाना या नहीं—बल्कि, क्या वो मुझे देख भी सकती थी या नहीं—ये सवाल भी मुश्किल था। चश्में के पीछे उसकी आँखें—कुछ अजीब-सी और मासूम, फिर भी वैसी ही जैसी बरसों पहले थीं। उसका दिमाग़ अब भी छह साल की बच्ची जैसा था—चीख़ता, हँसता, ज़िद्दी और शरारती।
ये तो तय था कि उसकी तबीयत में कोई सुधार नहीं आया था, फिर भी उस दिन वो इस दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत लड़की लग रही थी।
अब उसे गुज़रे छह साल से ज़ियादा हो चुके हैं। मुझे कभी उसकी बीमारी का पता नहीं चल पाया—बल्कि, मैंने कभी अमित से पूछना भी ठीक नहीं समझा। बाद में अमित से भी मिलना-जुलना कम हो गया। उस पेंसिल बॉक्स ने मुझे एक बार फिर वो रात याद दिला दी क्योंकि उस रात सभी को वही पेंसिल बॉक्स रिटर्न गिफ़्ट के तौर पर मिला था।
⸺ Achyutam Yadav 'Abtar'
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