मैं अपना कैमरा और बाक़ी का सामान लेकर धनौल्टी के ईको पार्क पहुँचा — ये मेरा काम का पहला ही दिन था। मसूरी के पास बसा ये छोटा-सा क़स्बा बड़ा ही पुरसुकून था। सुब्ह का वक़्त था, और पार्क अब भी ख़ामोश था। मैंने अपना सामान एक लकड़ी की बेंच पर रखा और वहीं बैठ गया। चारों ओर के दरख़्तों से उठती ताज़गी भरी, फूलों जैसी ख़ुशबू फ़िज़ा में घुली हुई थी — जो मुझे कुदरत की ख़ूबसूरती का एहसास दिला रही थी।
कुछ ही देर में मेरी आँख लग गई, मगर लोगों की हँसी-ठिठोली की आवाज़ें बढ़ती गईं और मैं चौंककर जाग गया। मैंने बोतल से पानी पिया और फिर कैमरा हाथ में लेकर पार्क में घूमने लगा, इस उम्मीद में कि कोई तस्वीर खिंचवाने वाला मिल जाए। मगर जल्दी ही ये साफ़ हो गया कि आजकल के लोगों को स्मार्टफ़ोन ज़ियादा पसंद हैं। ये देखना मायूस कर देने वाला था कि टेक्नोलॉजी ने प्रोफेशनल फ़ोटोग्राफ़ी की अहमियत कितनी घटा दी है।
मैंने काफ़ी कम दामों पर और पूरे जोश से लोगों को फ़ोटोशूट के लिए मनाने की कोशिश की, मगर ज़ियादातर ने मना कर दिया। शायद मेरी कम उम्र और भोली सूरत उन्हें यक़ीन दिलाने में नाकाम रही कि मैं कोई हुनरमंद फ़ोटोग्राफ़र हूँ। उस दिन कई घंटे यूँही बीत गए — मैं थककर उसी बेंच पर वापस आ गया, उदास और हारा हुआ। दूसरे फ़ोटोग्राफ़रों को भी बिना किसी ग्राहक के जाते देखना और ज़ियादा हौसला तोड़ने वाला था।
आठवें दिन, जब मैं लगभग ये सोच चुका था कि फ़ोटोग्राफ़ी छोड़ दूँ, तभी एक शख़्स मेरी तरफ़ आया और फ़ोटोशूट कराने की बात की। वो दुबला-पतला, गोरे रंग का और तक़रीबन चालीस-पैंतालीस साल का लग रहा था। जैसे ही मैंने कैमरा सेट किया, उसने पूछा, "कितने साल के हो? ये पेशा कब से अपनाया?"
हालाँकि मैं सिर्फ़ उन्नीस साल का था, मगर मैंने आत्मविश्वास से जवाब दिया, "इक्कीस का हूँ। दो-तीन साल से कर रहा हूँ। जब किशोर उम्र में आया, तो धीरे-धीरे ये हुनर मुझे अपनी तरफ़ खींचने लगा।”
उसकी मुस्कान थोड़ी अजीब सी थी, जैसे मेरी बातों के पीछे की सच्चाई वो पहचान गया हो। फिर उसने पूछा, “यहाँ रोज़ कितना कमा लेते हो?”
मैंने ईमानदारी से कहा, “कुछ ख़ास नहीं — कभी साठ, कभी सौ रुपये, और कभी-कभार दो सौ भी मिल जाते हैं।”
उसने ग़ौर से मेरी शक्ल देखी, जैसे दिल में कुछ महसूस कर रहा हो। मैंने उसे पार्क के कुछ ख़ूबसूरत हिस्सों में ले जाकर शूट किया। जब मैं तस्वीरें एडिट कर रहा था, वो बड़ी तल्लीनता से मेरा काम देखता रहा। मैंने उसे तस्वीरें दीं और सिर्फ़ 120 रुपये माँगे, जबकि आमतौर पर रेट 150 था।
उसने बिना कुछ कहे पैसे दे दिए, तस्वीरें देखीं और बोला, “बेटा, तुम बहुत अच्छे फ़ोटोग्राफ़र हो। लगे रहो। मेरी तरफ़ से ढेर सारी दुआएँ।”
मैंने भी उसे सम्मान के साथ रुख़्सत किया और बेंच पर आकर बैठ गया, माँ को अपनी आज की क़ामयाबी बताने की ख़ुशी थी — मगर पहाड़ों में नेटवर्क नहीं था, इसलिए बात नहीं हो सकी। पानी पीते हुए मैंने देखा कि वही शख़्स कुछ फ़ोटोग्राफ़रों के साथ हँसी-मज़ाक़ कर रहा था, जैसे वो उनके पुराने दोस्त हों। मुझे हैरानी हुई कि अगर वो इनसे जुड़ा हुआ था, तो फिर मेरे पास फ़ोटोशूट के लिए क्यों आया?
जिज्ञासावश मैंने उन फ़ोटोग्राफ़रों में से एक से उसके बारे में पूछा। उसने हल्की सी मुस्कराहट के साथ बताया कि वो आदमी कभी फ़ोटोग्राफ़र हुआ करता था, लेकिन काम की कमी के चलते अब देहरादून में मिठाइयों की दुकान चलाता है। कभी-कभी अपने पुराने दोस्तों से मिलने यहाँ आ जाता है।
उसकी बातें सुनकर मुझे सब कुछ समझ में आ गया — कि वो मेरी मेहनत को इतने ध्यान से क्यों देख रहा था, और मेरी हौसला-अफ़ज़ाई क्यों कर रहा था। मैं ज़िंदगी के एक और फ़लसफ़े से रू-ब-रू हुआ। कभी-कभी लगता है जैसे मैं वो एक दिन देखने के लिए ही इस जहाँ में आया था।
ख़ैर, मैंने फिर उसे कभी नहीं देखा, क्योंकि एक हफ्ते बाद मैं धनौल्टी छोड़कर रुड़की लौट गया — ताकि घरवालों के करीब रहते हुए फ़ोटोग्राफ़ी कर सकूँ। मगर उस अजनबी की अचानक मिली सराहना ने मुझे एक नया जज़्बा और मक़सद दे दिया था — और अपने शौक़ को देखने का एक ताज़ा नज़रिया भी।
⸺ Achyutam Yadav 'Abtar'
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