दो तस्वीरें - कहानी


मम्मी और पापा ने तय किया कि कुछ दिनों के लिए गाँव चलेंगे। तब मेरी उम्र तक़रीबन दस साल थी और मैं दादा जी से मिलने के लिए बेहद उत्सुख था, क्यूँकि उन्हें देखे हुए एक साल से भी ज़ियादा वक़्त गुज़र चुका था। 

जब हम गाँव आए तो रात का वक़्त था। हम अभी अपने घर से क़रीब दो किलोमीटर दूर ही थे कि मेरी नज़र एक ऐसे इलाक़े पर पड़ी जहाँ चारों तरफ़ अँधेरा ही अँधेरा था। वहाँ रौशनी का कोई नामो-निशान न था, बस दूर से झिलमिलाते कुछ दीयों की हल्की रौशनी नज़र आ रही थी। मैंने पापा से पूछा, “यहाँ इतना अँधेरा क्यों है? बाक़ी जगह तो लाइटें जल रही हैं।”

उन्होंने उधर देखा और बोले, “वहाँ बस कुछ ही लोग रहते हैं, और सब सो चुके होंगे।”

तभी उनका फ़ोन बजा और वो उसमें व्यस्त हो गए।

मेरे लिए ये समझ पाना अजीब था कि कोई रात के आठ बजे ही इतने सारे लोग कैसे सो सकते हैं। शहर में तो हम लोग ग्यारह बजे से पहले बिस्तर की ओर रुख़ ही नहीं करते थे। लेकिन ये राज़ अभी के लिए राज़ ही रह गया।  

जब हम घर पहुँचे, तो मैं झटपट दादा जी के पास दौड़ा और उनके पैर छू कर आशीर्वाद लिया। हमेशा की तरह वो सफ़ेद धोती में थे, और बदन पर जनेऊ पड़ी हुई थी। मुझे देखकर उनके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई। मैं उनसे बहुत क़रीब था, इसलिए मुझे पूरा यक़ीन था कि वो मुझे उस अँधेरे इलाक़े के बारे में कुछ न कुछ ज़रूर बताएँगे।

मैंने उनसे वही सवाल दोहराया जो थोड़ी देर पहले पापा से पूछा था।

उन्होंने मुझे मेरा चेहरा ग़ौर से देखा और बोले,

“उस इलाके का ट्रांसफ़ॉर्मर जल गया है बेटा, लेकिन कुछ आज-कल में ठीक हो जाएगा। चिंता मत करो, गाँव आए हो, छुट्टियों का आनंद लो।”

तभी चाची ने खाने के लिए आवाज़ दी। खाना खाकर मैं छत पर चला गया — खुले आसमान के नीचे सोने का मौक़ा किसी शहर के बच्चे को कहाँ मिलता है — और मैंने उस पल को दिल से महसूस किया।

अगली सुबह, जैसे ही मेरी आँखें खुली, मेरे मन में उस इलाके को देखने की तीव्र इच्छा जाग उठी। मैं चुपचाप घर से निकल पड़ा। ईंटों वाली सड़क पर पहुँचा, जो हमारे घर से कुछ दूरी पर थी। मैं खेतों को देखने में इतना मग्न था कि तभी चलते हुए मेरा दायाँ पैर एक पत्थर से टकरा गया और मैं ज़ोर से गिर पड़ा। दर्द से चीख़ पड़ा।

पता नहीं कहाँ से, एक लड़का मेरे सामने आ खड़ा हुआ। शायद बग़ल के खेत से आया था। उम्र में वो भी मेरे बराबर ही रहा होगा। उसके कपड़े फटे हुए थे, चेहरे पर मिट्टी लगी हुई थी और दोनों पैर कीचड़ में सने हुए थे।

मैंने अपने घर की ओर इशारा करके कहा, “प्लीज़ मेरे दादाजी को बुला दो।”

लेकिन उसने सिर हिलाकर मना कर दिया, जैसे उसे कोई दिलचस्पी ही नहीं थी।

मैं दर्द से कराह रहा था, इसलिए उससे कहा, “कम से कम मुझे उठने में तो मदद करो।”

मगर उसने कोई रहम नहीं दिखाया, बस ख़ामोशी से खड़ा मुझे देखता रहा।

मैं झुँझलाया और ज़ोर से चीख़ने लगा। तभी एक औरत, शायद उसकी माँ, वहाँ पहुँच आई। उसने आते ही उसे एक थप्पड़ मारा।  वो सिर्फ़ इसलिए कि वो वहाँ मेरे पास खड़े होकर बातें कर रहा था।  मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या हो रहा था।  

उस औरत का व्यक्तित्व बेहद कठोर लग रहा था, मगर मेरी आँखों में आँसू देखकर उसका पत्थर सा दिल भी पिघल गया।

उसने अपने बेटे से कहा कि वो वहीं मेरे पास रुके, और वो ख़ुद भागती हुई उस तरफ़ चली गई जहाँ जिस जगह को मैं देखने के लिए घर से निकला था — शायद अपने पति को बुलाने के लिए।

वो इलाक़ा अब भी दूर था, लेकिन जितना मैं देख पा रहा था, वहाँ बस कुछ जर्जर झोपड़ियाँ थीं।

उधर, वो लड़का मुझे यूँ ही लगातार देखे जा रहा था।

“तुम्हारा नाम क्या है?”, मैंने पूछा।

“रंजन”, उसने जवाब दिया।

“तुम मेरी मदद क्यों नहीं कर रहे हो ?”, मैंने पूछा।

उसने कहा, “पापा ने मना किया है गाँव के और लोगों से मिलने को।”

“क्यों?”

“पता नहीं।”

मैं उससे और भी बातें करना चाहता था, लेकिन तभी मेरे चाचा वहाँ पहुँच गए। शायद वो बाज़ार से लौट रहे थे, पुरानी और बे-रंग हो चुकी बाइक लेकर।

मुझे सड़क पर गिरा देख वो तुरंत बाइक से उतरे और मेरी ओर दौड़े।

उन्हें देखते ही रंजन वहाँ से भाग गया और कुछ ही पलों में खेतों में गुम हो गया।

चाचा ने मुझे गोद में उठाया और घर ले आए। घर पहुँचते ही हर किसी ने सवालों की झड़ी लगा दी और डाँट भी पड़ी कि बिना बताए मैं कहाँ और क्यों निकला था।

तभी दादा जी ने चाचा से पूछा, “अनूप (मैं) कहाँ था और कैसे गिरा?”

चाचा ने जवाब दिया, “बाबू जी, कैसे गिरा ये तो नहीं पता, लेकिन इसे ‘दलितों की बस्ती’ के पास से उठा कर लाया हूँ।”

उस वक़्त ये बात आम-सी लगी, लेकिन अब मुझे समझ आता है ⸺ क्यों वहाँ रौशनी नहीं थी, और क्यों रंजन चाहकर भी मेरी मदद नहीं कर सका।

⸺ Achyutam Yadav 'Abtar'