Meer Taqi Meer Shayari Collection

मीर तक़ी मीर (1723–1810) को उर्दू शायरी का आधार स्तंभ माना जाता है। उनकी शायरी में दर्द, विरह और इंसानी जज़्बात की इतनी सादगी और गहराई है कि हर शेर सीधे दिल में उतर जाता है। उन्हें "ख़ुदा-ए-सुख़न" यानी शायरी का ख़ुदा भी कहा जाता है। मीर की कलम से निकले अल्फ़ाज़ अक्सर दिल टूटने की ख़ामोश दास्तान बयान करते हैं। 

यह Meer Taqi Meer Shayari Collection वो दरवाज़ा है जो मीर के दिल-ओ-दिमाग़ में खुलता है और हमें उनके और उनकी शायरी के बारे में बहुत कुछ बताता है। तो आइए, सबसे पहले हम मीर तक़ी मीर की कुछ ग़ज़लें देखते हैं।  

मीर तक़ी मीर की ग़ज़लें 

पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश को बाले तक उस को फ़लक चश्म-ए-मह-ओ-ख़ुर की पुतली का तारा जाने है आगे उस मुतकब्बिर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं कब मौजूद ख़ुदा को वो मग़रूर-ए-ख़ुद-आरा जाने है आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्याद बचा ताइर उड़ते हवा में सारे अपने असारा जाने है मेहर ओ वफ़ा ओ लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं और तो सब कुछ तंज़ ओ किनाया रम्ज़ ओ इशारा जाने है क्या क्या फ़ित्ने सर पर उस के लाता है माशूक़ अपना जिस बे-दिल बे-ताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है रख़नों से दीवार-ए-चमन के मुँह को ले है छुपा या'नी इन सूराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है तिश्ना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ी-कश दम-दार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है ⸺ मीर तक़ी मीर
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उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया अहद-ए-जवानी रो रो काटा पीरी में लीं आँखें मूँद या'नी रात बहुत थे जागे सुब्ह हुई आराम किया हर्फ़ नहीं जाँ-बख़्शी में उस की ख़ूबी अपनी क़िस्मत की हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की चाहते हैं सो आप करें हैं हम को अबस बदनाम किया सारे रिंद औबाश जहाँ के तुझ से सुजूद में रहते हैं बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझ को इमाम किया सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया किस का काबा कैसा क़िबला कौन हरम है क्या एहराम कूचे के उस के बाशिंदों ने सब को यहीं से सलाम किया शैख़ जो है मस्जिद में नंगा रात को था मय-ख़ाने में जुब्बा ख़िर्क़ा कुर्ता टोपी मस्ती में इनआ'म किया काश अब बुर्क़ा मुँह से उठा दे वर्ना फिर क्या हासिल है आँख मुँदे पर उन ने गो दीदार को अपने आम किया याँ के सपीद ओ सियह में हम को दख़्ल जो है सो इतना है रात को रो रो सुब्ह किया या दिन को जूँ तूँ शाम किया सुब्ह चमन में उस को कहीं तकलीफ़-ए-हवा ले आई थी रुख़ से गुल को मोल लिया क़ामत से सर्व ग़ुलाम किया साअद-ए-सीमीं दोनों उस के हाथ में ला कर छोड़ दिए भूले उस के क़ौल-ओ-क़सम पर हाए ख़याल-ए-ख़ाम किया काम हुए हैं सारे ज़ाएअ' हर साअ'त की समाजत से इस्तिग़्ना की चौगुनी उन ने जूँ जूँ मैं इबराम किया ऐसे आहु-ए-रम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी सेहर किया ए'जाज़ किया जिन लोगों ने तुझ को राम किया 'मीर' के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया ⸺ मीर तक़ी मीर
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हस्ती अपनी हबाब की सी है ये नुमाइश सराब की सी है नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए पंखुड़ी इक गुलाब की सी है चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है बार बार उस के दर पे जाता हूँ हालत अब इज़्तिराब की सी है नुक़्ता-ए-ख़ाल से तिरा अबरू बैत इक इंतिख़ाब की सी है मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़ उसी ख़ाना-ख़राब की सी है आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद देर से बू कबाब की सी है देखिए अब्र की तरह अब के मेरी चश्म-ए-पुर-आब की सी है 'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में सारी मस्ती शराब की सी है ⸺ मीर तक़ी मीर
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देख तो दिल कि जाँ से उठता है ये धुआँ सा कहाँ से उठता है गोर किस दिलजले की है ये फ़लक शोला इक सुब्ह याँ से उठता है ख़ाना-ए-दिल से ज़ीनहार न जा कोई ऐसे मकाँ से उठता है नाला सर खींचता है जब मेरा शोर इक आसमाँ से उठता है लड़ती है उस की चश्म-ए-शोख़ जहाँ एक आशोब वाँ से उठता है सुध ले घर की भी शोला-ए-आवाज़ दूद कुछ आशियाँ से उठता है बैठने कौन दे है फिर उस को जो तिरे आस्ताँ से उठता है यूँ उठे आह उस गली से हम जैसे कोई जहाँ से उठता है इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है ⸺ मीर तक़ी मीर
5
क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़ जान का रोग है बला है इश्क़ इश्क़ ही इश्क़ है जहाँ देखो सारे आलम में भर रहा है इश्क़ इश्क़ है तर्ज़ ओ तौर इश्क़ के तईं कहीं बंदा कहीं ख़ुदा है इश्क़ इश्क़ मा'शूक़ इश्क़ आशिक़ है या'नी अपना ही मुब्तला है इश्क़ गर परस्तिश ख़ुदा की साबित की किसू सूरत में हो भला है इश्क़ दिलकश ऐसा कहाँ है दुश्मन-ए-जाँ मुद्दई है प मुद्दआ है इश्क़ है हमारे भी तौर का आशिक़ जिस किसी को कहीं हुआ है इश्क़ कोई ख़्वाहाँ नहीं मोहब्बत का तू कहे जिंस-ए-ना-रवा है इश्क़ 'मीर'-जी ज़र्द होते जाते हो क्या कहीं तुम ने भी किया है इश्क़ ⸺ मीर तक़ी मीर
6
अश्क आँखों में कब नहीं आता लोहू आता है जब नहीं आता होश जाता नहीं रहा लेकिन जब वो आता है तब नहीं आता सब्र था एक मोनिस-ए-हिज्राँ सो वो मुद्दत से अब नहीं आता दिल से रुख़्सत हुई कोई ख़्वाहिश गिर्या कुछ बे-सबब नहीं आता इश्क़ को हौसला है शर्त अर्ना बात का किस को ढब नहीं आता जी में क्या क्या है अपने ऐ हमदम पर सुख़न ता-ब-लब नहीं आता दूर बैठा ग़ुबार-ए-'मीर' उस से इश्क़ बिन ये अदब नहीं आता ⸺ मीर तक़ी मीर
7
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या आगे आगे देखिए होता है क्या क़ाफ़िले में सुब्ह के इक शोर है या'नी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं तुख़्म-ए-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या ये निशान-ए-इश्क़ हैं जाते नहीं दाग़ छाती के अबस धोता है क्या ग़ैरत-ए-यूसुफ़ है ये वक़्त-ए-अज़ीज़ 'मीर' उस को राएगाँ खोता है क्या ⸺ मीर तक़ी मीर
आप जैसे पाठकों की वजह से ही शायरी आज भी ज़िंदा है। अगर अभी तक आपने मन से पढ़ा, तो आगे का Meer Taqi Meer Shayari Collection भी ज़रूर पढ़ें — हर शे'र एक नया पहलू लिए हुए है।


8
यारो मुझे मुआ'फ़ रखो मैं नशे में हूँ अब दो तो जाम ख़ाली ही दो मैं नशे में हूँ एक एक क़ुर्त दौर में यूँ ही मुझे भी दो जाम-ए-शराब पुर न करो मैं नशे में हूँ मस्ती से दरहमी है मिरी गुफ़्तुगू के बीच जो चाहो तुम भी मुझ को कहो मैं नशे में हूँ या हाथों हाथ लो मुझे मानिंद-ए-जाम-ए-मय या थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ मा'ज़ूर हूँ जो पाँव मिरा बे-तरह पड़े तुम सरगिराँ तो मुझ से न हो मैं नशे में हूँ भागी नमाज़-ए-जुमा तो जाती नहीं है कुछ चलता हूँ मैं भी टुक तो रहो मैं नशे में हूँ नाज़ुक-मिज़ाज आप क़यामत हैं 'मीर' जी जूँ शीशा मेरे मुँह न लगो मैं नशे में हूँ ⸺ मीर तक़ी मीर
9
हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए जिन की ख़ातिर की उस्तुख़्वाँ-शिकनी सो हम उन के निशान-ए-तीर हुए नहीं आते कसो की आँखों में हो के आशिक़ बहुत हक़ीर हुए आगे ये बे-अदाइयाँ कब थीं इन दिनों तुम बहुत शरीर हुए अपने रोते ही रोते सहरा के गोशे गोशे में आब-गीर हुए ऐसी हस्ती अदम में दाख़िल है नय जवाँ हम न तिफ़्ल-ए-शीर हुए एक दम थी नुमूद बूद अपनी या सफ़ेदी की या अख़ीर हुए या'नी मानिंद-ए-सुब्ह दुनिया में हम जो पैदा हुए सौ पीर हुए मत मिल अहल-ए-दुवल के लड़कों से 'मीर'-जी उन से मिल फ़क़ीर हुए ⸺ मीर तक़ी मीर
10
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो इश्क़-पेचे की तरह हुस्न-ए-गिरफ़्तारी है लुत्फ़ क्या सर्व की मानिंद गर आज़ाद रहो हम को दीवानगी शहरों ही में ख़ुश आती है दश्त में क़ैस रहो कोह में फ़रहाद रहो वो गराँ ख़्वाब जो है नाज़ का अपने सो है दाद बे-दाद रहो शब को कि फ़रियाद रहो 'मीर' हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो ⸺ मीर तक़ी मीर
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ज़ख़्म झेले दाग़ भी खाए बहुत दिल लगा कर हम तो पछताए बहुत जब न तब जागह से तुम जाया किए हम तो अपनी ओर से आए बहुत दैर से सू-ए-हरम आया न टुक हम मिज़ाज अपना इधर लाए बहुत फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे पर हमें इन में तुम्हीं भाए बहुत गर बुका इस शोर से शब को है तो रोवेंगे सोने को हम-साए बहुत वो जो निकला सुब्ह जैसे आफ़्ताब रश्क से गुल फूल मुरझाए बहुत 'मीर' से पूछा जो मैं आशिक़ हो तुम हो के कुछ चुपके से शरमाए बहुत ⸺ मीर तक़ी मीर
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आरज़ूएँ हज़ार रखते हैं तो भी हम दिल को मार रखते हैं बर्क़ कम-हौसला है हम भी तो दिलक-ए-बे-क़रार रखते हैं ग़ैर ही मूरिद-ए-इनायत है हम भी तो तुम से प्यार रखते हैं न निगह ने पयाम ने वा'दा नाम को हम भी यार रखते हैं हम से ख़ुश-ज़मज़मा कहाँ यूँ तो लब ओ लहजा हज़ार रखते हैं चोट्टे दिल के हैं बुताँ मशहूर बस यही ए'तिबार रखते हैं फिर भी करते हैं 'मीर' साहब इश्क़ हैं जवाँ इख़्तियार रखते हैं ⸺ मीर तक़ी मीर
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ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा दिल के जाने का निहायत ग़म रहा हुस्न था तेरा बहुत आलम-फ़रेब ख़त के आने पर भी इक आलम रहा दिल न पहुँचा गोशा-ए-दामाँ तलक क़तरा-ए-ख़ूँ था मिज़ा पर जम रहा सुनते हैं लैला के ख़ेमे को सियाह उस में मजनूँ का मगर मातम रहा जामा-ए-एहराम-ए-ज़ाहिद पर न जा था हरम में लेक ना-महरम रहा ज़ुल्फ़ें खोलीं तो तू टुक आया नज़र उम्र भर याँ काम-ए-दिल बरहम रहा उस के लब से तल्ख़ हम सुनते रहे अपने हक़ में आब-ए-हैवाँ सम रहा मेरे रोने की हक़ीक़त जिस में थी एक मुद्दत तक वो काग़ज़ नम रहा सुब्ह-ए-पीरी शाम होने आई 'मीर' तू न चेता याँ बहुत दिन कम रहा ⸺ मीर तक़ी मीर
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हमारे आगे तिरा जब किसू ने नाम लिया दिल-ए-सितम-ज़दा को हम ने थाम थाम लिया क़सम जो खाइए तो ताला-ए-ज़ुलेख़ा की अज़ीज़-ए-मिस्र का भी साहब इक ग़ुलाम लिया ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मय-ख़ाने निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतिक़ाम लिया वो कज-रविश न मिला रास्ते में मुझ से कभी न सीधी तरह से उन ने मिरा सलाम लिया मज़ा दिखावेंगे बे-रहमी का तिरी सय्याद गर इज़्तिराब-ए-असीरी ने ज़ेर-ए-दाम लिया मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर' प मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम लिया ⸺ मीर तक़ी मीर
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आए हैं 'मीर' काफ़िर हो कर ख़ुदा के घर में पेशानी पर है क़श्क़ा ज़ुन्नार है कमर में नाज़ुक बदन है कितना वो शोख़-चश्म दिलबर जान उस के तन के आगे आती नहीं नज़र में सीने में तीर उस के टूटे हैं बे-निहायत सुराख़ पड़ गए हैं सारे मिरे जिगर में आइंदा शाम को हम रोया कुढ़ा करेंगे मुतलक़ असर न देखा नालीदन-ए-सहर में बे-सुध पड़ा रहूँ हूँ उस मस्त-ए-नाज़ बिन मैं आता है होश मुझ को अब तो पहर पहर में सीरत से गुफ़्तुगू है क्या मो'तबर है सूरत है एक सूखी लकड़ी जो बू न हो अगर में हम-साया-ए-मुग़ाँ में मुद्दत से हूँ चुनाँचे इक शीरा-ख़ाने की है दीवार मेरे घर में अब सुब्ह ओ शाम शायद गिर्ये पे रंग आवे रहता है कुछ झमकता ख़ूनाब चश्म-ए-तर में आलम में आब-ओ-गिल के क्यूँकर निबाह होगा अस्बाब गिर पड़ा है सारा मिरा सफ़र में ⸺ मीर तक़ी मीर
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बार-हा गोर-ए-दिल झंका लाया अब के शर्त-ए-वफ़ा बजा लाया क़द्र रखती न थी मता-ए-दिल सारे आलम में मैं दिखा लाया दिल कि यक क़तरा ख़ूँ नहीं है बेश एक आलम के सर बला लाया सब पे जिस बार ने गिरानी की उस को ये ना-तवाँ उठा लाया दिल मुझे उस गली में ले जा कर और भी ख़ाक में मिला लाया इब्तिदा ही में मर गए सब यार इश्क़ की कौन इंतिहा लाया अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर' फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया ⸺ मीर तक़ी मीर

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जिन के लिए अपने तो यूँ जान निकलते हैं इस राह में वे जैसे अंजान निकलते हैं क्या तीर-ए-सितम उस के सीने में भी टूटे थे जिस ज़ख़्म को चीरूँ हूँ पैकान निकलते हैं मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं किस का है क़िमाश ऐसा गूदड़ भरे हैं सारे देखो न जो लोगों के दीवान निकलते हैं गह लोहू टपकता है गह लख़्त-ए-दिल आँखों से या टुकड़े जिगर ही के हर आन निकलते हैं करिए तो गिला किस से जैसी थी हमें ख़्वाहिश अब वैसे ही ये अपने अरमान निकलते हैं जागह से भी जाते हो मुँह से भी ख़शिन हो कर वे हर्फ़ नहीं हैं जो शायान निकलते हैं सो काहे को अपनी तू जोगी की सी फेरी है बरसों में कभू ईधर हम आन निकलते हैं उन आईना-रूयों के क्या 'मीर' भी आशिक़ हैं जब घर से निकलते हैं हैरान निकलते हैं ⸺ मीर तक़ी मीर
18
जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा तो हम-साया काहे को सोता रहेगा मैं वो रोने वाला जहाँ से चला हूँ जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा मुझे काम रोने से अक्सर है नासेह तू कब तक मिरे मुँह को धोता रहेगा बस ऐ गिर्या आँखें तिरी क्या नहीं हैं कहाँ तक जहाँ को डुबोता रहेगा मिरे दिल ने वो नाला पैदा किया है जरस के भी जो होश खोता रहेगा तू यूँ गालियाँ ग़ैर को शौक़ से दे हमें कुछ कहेगा तो होता रहेगा बस ऐ 'मीर' मिज़्गाँ से पोंछ आँसुओं को तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा ⸺ मीर तक़ी मीर
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जिन जिन को था ये इश्क़ का आज़ार मर गए अक्सर हमारे साथ के बीमार मर गए होता नहीं है उस लब-ए-नौ-ख़त पे कोई सब्ज़ ईसा ओ ख़िज़्र क्या सभी यक-बार मर गए यूँ कानों-कान गुल ने न जाना चमन में आह सर को पटक के हम पस-ए-दीवार मर गए सद कारवाँ वफ़ा है कोई पूछता नहीं गोया मता-ए-दिल के ख़रीदार मर गए मजनूँ न दश्त में है न फ़रहाद कोह में था जिन से लुत्फ़-ए-ज़िंदगी वे यार मर गए गर ज़िंदगी यही है जो करते हैं हम असीर तो वे ही जी गए जो गिरफ़्तार मर गए अफ़्सोस वे शहीद कि जो क़त्ल-गाह में लगते ही उस के हाथ की तलवार मर गए तुझ से दो-चार होने की हसरत के मुब्तिला जब जी हुए वबाल तो नाचार मर गए घबरा न 'मीर' इश्क़ में उस सहल-ए-ज़ीस्त पर जब बस चला न कुछ तो मिरे यार मर गए ⸺ मीर तक़ी मीर
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रही न-गुफ़्ता मिरे दिल में दास्ताँ मेरी न उस दयार में समझा कोई ज़बाँ मेरी ब-रंग-ए-सौत-ए-जरस तुझ से दूर हूँ तन्हा ख़बर नहीं है तुझे आह कारवाँ मेरी तिरे न आज के आने में सुब्ह के मुझ पास हज़ार जाए गई तब-ए-बद-गुमाँ मेरी वो नक़्श-ए-पै हूँ मैं मिट गया हो जो रह में न कुछ ख़बर है न सुध हैगी रह-रवाँ मेरी शब उस के कूचे में जाता हूँ इस तवक़्क़ो' पर कि एक दोस्त है वाँ ख़्वाब पासबाँ मेरी उसी से दूर रहा असल मुद्दआ' जो था गई ये उम्र-ए-अज़ीज़ आह राएगाँ मेरी तिरे फ़िराक़ में जैसे ख़याल मुफ़्लिस का गई है फ़िक्र-ए-परेशाँ कहाँ कहाँ मेरी नहीं है ताब-ओ-तवाँ की जुदाई का अंदोह कि ना-तवानी बहुत है मिज़ाज-दाँ मेरी रहा मैं दर-ए-पस-ए-दीवार-ए-बाग़ मुद्दत लेक गई गुलों के न कानों तलक फ़ुग़ाँ मेरी हुआ हूँ गिर्या-ए-ख़ूनीं का जब से दामन-गीर न आस्तीन हुई पाक दोस्ताँ मेरी दिया दिखाई मुझे तो इसी का जल्वा 'मीर' पड़ी जहान में जा कर नज़र जहाँ मेरी ⸺ मीर तक़ी मीर
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मुँह तका ही करे है जिस तिस का हैरती है ये आईना किस का शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का थे बुरे मुग़्बचों के तेवर लेक शैख़ मय-ख़ाने से भला खिसका दाग़ आँखों से खिल रहे हैं सब हाथ दस्ता हुआ है नर्गिस का बहर कम-ज़र्फ़ है बसान-ए-हबाब कासा-लैस अब हुआ है तू जिस का फ़ैज़ ऐ अब्र चश्म-ए-तर से उठा आज दामन वसीअ है इस का ताब किस को जो हाल-ए-मीर सुने हाल ही और कुछ है मज्लिस का ⸺ मीर तक़ी मीर
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उम्र भर हम रहे शराबी से दिल-ए-पुर-ख़ूँ की इक गुलाबी से जी ढहा जाए है सहर से आह रात गुज़रेगी किस ख़राबी से खिलना कम कम कली ने सीखा है उस की आँखों की नीम-ख़्वाबी से बुर्क़ा उठते ही चाँद सा निकला दाग़ हूँ उस की बे-हिजाबी से काम थे इश्क़ में बहुत पर 'मीर' हम ही फ़ारिग़ हुए शिताबी से ⸺ मीर तक़ी मीर
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आवेगी मेरी क़ब्र से आवाज़ मेरे बा'द उभरेंगे इश्क़-ए-दिल से तिरे राज़ मेरे बा'द जीना मिरा तो तुझ को ग़नीमत है ना-समझ खींचेगा कौन फिर ये तिरे नाज़ मेरे बा'द शम-ए-मज़ार और ये सोज़-ए-जिगर मिरा हर शब करेंगे ज़िंदगी ना-साज़ मेरे बा'द हसरत है इस के देखने की दिल में बे-क़यास अग़्लब कि मेरी आँखें रहें बाज़ मेरे बा'द करता हूँ मैं जो नाले सर-अंजाम बाग़ में मुँह देखो फिर करेंगे हम आवाज़ मेरे बा'द बिन गुल मुआ ही मैं तो प तू जा के लौटियो सेहन-ए-चमन में ऐ पर-ए-पर्वाज़ मेरे बा'द बैठा हूँ 'मीर' मरने को अपने में मुस्तइद पैदा न होंगे मुझ से भी जाँबाज़ मेरे बा'द ⸺ मीर तक़ी मीर

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24
उस का ख़िराम देख के जाया न जाएगा ऐ कब्क फिर बहाल भी आया न जाएगा हम कशतगान-ए-इशक़ हैं अब्रू-ओ-चश्म-ए-यार सर से हमारे तेग़ का साया न जाएगा हम रहरवान-ए-राह-ए-फ़ना हैं बिरंग-ए-उम्र जावेंगे ऐसे खोज भी पाया न जाएगा फोड़ा सा सारी रात जो पकता रहेगा दिल तो सुब्ह तक तो हाथ लगाया न जाएगा अपने शहीद-ए-नाज़ से बस हाथ उठा कि फिर दीवान-ए-हश्र में उसे लाया न जाएगा अब देख ले कि सीना भी ताज़ा हुआ है चाक फिर हम से अपना हाल दिखाया न जाएगा हम बे-ख़ुदान-ए-महफ़िल-ए-तस्वीर अब गए आइंदा हम से आप में आया न जाएगा गो बे-सुतूँ को टाल दे आगे से कोहकन संग-ए-गरान-ए-इश्क़ उठाया न जाएगा हम तो गए थे शैख़ को इंसान बूझ कर पर अब से ख़ानक़ाह में जाया न जाएगा याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा ⸺ मीर तक़ी मीर
25
मक्का गया मदीना गया कर्बला गया जैसा गया था वैसा ही चल फिर के आ गया देखा हो कुछ उस आमद-ओ-शुद में तो मैं कहूँ ख़ुद गुम हुआ हूँ बात की तह अब जो पा गया कपड़े गले के मेरे न हों आब-दीदा क्यूँ मानिंद-ए-अब्र दीदा-ए-तर अब तो छा गया जाँ-सोज़ आह ओ नाला समझता नहीं हूँ मैं यक शो'ला मेरे दिल से उठा था जला गया वो मुझ से भागता ही फिरा किब्र-ओ-नाज़ से जूँ जूँ नियाज़ कर के मैं उस से लगा गया जोर-ए-सिपहर-ए-दूँ से बुरा हाल था बहुत मैं शर्म-ए-ना-कसी से ज़मीं में समा गया देखा जो राह जाते तबख़्तुर के साथ उसे फिर मुझ शिकस्ता-पा से न इक-दम रहा गया बैठा तो बोरिए के तईं सर पे रख के 'मीर' सफ़ किस अदब से हम फ़ुक़रा की उठा गया ⸺ मीर तक़ी मीर
ग़ज़ल के बाद अब पेश हैं Meer Taqi Meer Shayari  Collection से कुछ चुनिंदा अशआर। 

मीर तक़ी मीर के चुनिंदा अश'आर 

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए पंखुड़ी इक गुलाब की सी है ⸺ मीर तक़ी मीर
कोई तुम सा भी काश तुम को मिले मुद्दआ हम को इंतिक़ाम से है ⸺ मीर तक़ी मीर
अब तो जाते हैं बुत-कदे से 'मीर' फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया ⸺ मीर तक़ी मीर
हम हुए तुम हुए कि 'मीर' हुए उस की ज़ुल्फ़ों के सब असीर हुए ⸺ मीर तक़ी मीर
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये ⸺ मीर तक़ी मीर
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया ⸺ मीर तक़ी मीर
याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा ⸺ मीर तक़ी मीर
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो ⸺ मीर तक़ी मीर
फूल गुल शम्स ओ क़मर सारे ही थे पर हमें उन में तुम्हीं भाए बहुत ⸺ मीर तक़ी मीर
इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है ⸺ मीर तक़ी मीर
शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का ⸺ मीर तक़ी मीर
दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया ⸺ मीर तक़ी मीर
बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को देर से इंतिज़ार है अपना ⸺ मीर तक़ी मीर
बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा क़हर होता जो बा-वफ़ा होता ⸺ मीर तक़ी मीर
'मीर' साहब तुम फ़रिश्ता हो तो हो आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ ⸺ मीर तक़ी मीर
Meer Taqi Meer Shayari Collection में न सिर्फ़ उर्दू अदब की एक अनमोल विरासत है, बल्कि दिल से निकली हुई वो सदा है जो हर दौर में सुनाई देती है। इनमें हज़ारों फ़लसफ़े खुलकर सामने आए। अगर मीर की यह दुनिया आपको करीब लगी हो, तो ब्लॉग पर मौजूद अन्य शायरी संग्रह भी ज़रूर पढ़ें — मुझे पूरी उम्मीद है कि वो भी आप को निराश नहीं करेंगी।