आदाब, स्वागत है आपका हमारी इस Shayari Collection सीरीज़ में। उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारा उर्दू और हिंदी ज़बान लोगों तक पहुँचाने का काम पसंद आ रहा होगा। आज हम जिस शायर का कलाम ले कर आए हैं उन्हें आप बा-ख़ूबी जानते हैं - अज़हर इक़बाल। इनकी शायरी बिल्कुल आम बोल-चाल की भाषा में होती है लेकिन इंसानी जज़्बात को बा-ख़ूबी अलफ़ाज़ में पिरोती है। यह इनकी शायरी की गहराई का कमाल है कि इन्होनें अपनी एक अलग पहचान बनाई है।
Azhar Iqbal Shayari Collection में मैंने अज़हर साहब की ग़ज़लें और चुनिंदा अश'आर आपके लिए प्रस्तुत किए हैं और मुझे पूरी उम्मीद है कि ये कलेक्शन आपके दिल में घर कर जाएगी।
अज़हर इक़बाल की ग़ज़लें
1
दिल की गली में चाँद निकलता रहता है
एक दिया उम्मीद का जलता रहता है
जैसे जैसे यादों कि लौ बढ़ती है
वैसे वैसे जिस्म पिघलता रहता है
सरगोशी को कान तरसते रहते हैं
सन्नाटा आवाज़ में ढलता रहता है
मंज़र मंज़र जी लो जितना जी पाओ
मौसम पल पल रंग बदलता रहता है
राख हुई जाती है सारी हरियाली
आँखों में जंगल सा जलता रहता है
तुम जो गए तो भूल गए सारी बातें
वैसे दिल में क्या क्या चलता रहता है- अज़हर इक़बाल
2
घुटन सी होने लगी उस के पास जाते हुए
मैं ख़ुद से रूठ गया हूँ उसे मनाते हुए
ये ज़ख़्म ज़ख़्म मनाज़िर लहू लहू चेहरे
कहाँ चले गए वो लोग हँसते गाते हुए
न जाने ख़त्म हुई कब हमारी आज़ादी
तअल्लुक़ात की पाबंदियाँ निभाते हुए
है अब भी बिस्तर-ए-जाँ पर तिरे बदन की शिकन
मैं ख़ुद ही मिटने लगा हूँ उसे मिटाते हुए
तुम्हारे आने की उम्मीद बर नहीं आती
मैं राख होने लगा हूँ दिए जलाते हुए- अज़हर इक़बाल
यह ग़ज़ल इस शायरी कलेक्शन में मेरी सबसे पसंदीदा ग़ज़ल है। मुझे मतला और आख़िरी शे'र बहुत ख़ूबसूरत लगे। अगर आप शायरी का मे'यार भी देखें तो मेरे मुताबिक़ ये ग़ज़ल Azhar Iqbal Shayari Collection में सबसे ऊपर आएगी।
3
गुलाब चाँदनी-रातों पे वार आए हम
तुम्हारे होंटों का सदक़ा उतार आए हम
वो एक झील थी शफ़्फ़ाफ़ नील पानी की
और उस में डूब को ख़ुद को निखार आए हम
तिरे ही लम्स से उन का ख़िराज मुमकिन है
तिरे बग़ैर जो उम्रें गुज़ार आए हम
फिर उस गली से गुज़रना पड़ा तिरी ख़ातिर
फिर उस गली से बहुत बे-क़रार आए हम
ये क्या सितम है कि इस नश्शा-ए-मोहब्बत में
तिरे सिवा भी किसी को पुकार आए हम - अज़हर इक़बाल
4
ये बार-ए-ग़म भी उठाया नहीं बहुत दिन से
कि उस ने हम को रुलाया नहीं बहुत दिन से
चलो कि ख़ाक उड़ाएँ चलो शराब पिएँ
किसी का हिज्र मनाया नहीं बहुत दिन से
ये कैफ़ियत है मेरी जान अब तुझे खो कर
कि हम ने ख़ुद को भी पाया नहीं बहुत दिन से
हर एक शख़्स यहाँ महव-ए-ख़्वाब लगता है
किसी ने हम को जगाया नहीं बहुत दिन से
ये ख़ौफ़ है कि रगों में लहू न जम जाए
तुम्हें गले से लगाया नहीं बहुत दिन से
- अज़हर इक़बाल
5
तुम्हारी याद के दीपक भी अब जलाना क्या
जुदा हुए हैं तो अहद-ए-वफ़ा निभाना क्या
बसीत होने लगी शहर-ए-जाँ पे तारीकी
खुला हुआ है कहीं पर शराब-ख़ाना क्या
खड़े हुए हो मियाँ गुम्बदों के साए में
सदाएँ दे के यहाँ पर फ़रेब खाना क्या
हर एक सम्त यहाँ वहशतों का मस्कन है
जुनूँ के वास्ते सहरा ओ आशियाना क्या
वो चाँद और किसी आसमाँ पे रौशन है
सियाह रात है उस की गली में जाना क्या
- अज़हर इक़बाल
6
तिरी सम्त जाने का रास्ता नहीं हो रहा
रह-ए-इश्क़ में कोई मो'जिज़ा नहीं हो रहा
कोई आइना हो जो ख़ुद से मुझ को मिला सके
मिरा अपने-आप से सामना नहीं हो रहा
तू ख़ुदा-ए-हुस्न-ओ-जमाल है तो हुआ करे
तेरी बंदगी से मिरा भला नहीं हो रहा
कोई रात आ के ठहर गई मिरी ज़ात में
मिरा रौशनी से भी राब्ता नहीं हो रहा
उसे अपने होंटों का लम्स दो कि ये साँस ले
ये जो पेड़ है ये हरा-भरा नहीं हो रहा
- अज़हर इक़बाल
7
हुई न ख़त्म तेरी रहगुज़ार क्या करते
तेरे हिसार से ख़ुद को फ़रार क्या करते
सफ़ीना ग़र्क़ ही करना पड़ा हमें आख़िर
तिरे बग़ैर समुंदर को पार क्या करते
बस एक सुकूत ही जिस का जवाब होना था
वही सवाल मियाँ बार बार क्या करते
फिर इस के बाद मनाया न जश्न ख़ुश्बू का
लहू में डूबी थी फ़स्ल-ए-बहार क्या करते
नज़र की ज़द में नए फूल आ गए 'अज़हर'
गई रुतों का भला इंतिज़ार क्या करते
- अज़हर इक़बाल
8
मुझ को वहशत हुई मिरे घर से
रात तेरी जुदाई के डर से
तेरी फ़ुर्क़त का हब्स था अंदर
और दम घुट रहा था बाहर से
जिस्म की आग बुझ गई लेकिन
फिर नदामत के अश्क भी बरसे
एक मुद्दत से हैं सफ़र में हम
घर में रह कर भी जैसे बेघर से
बार-हा तेरी जुस्तुजू में हम
तुझ से मिलने के बाद भी तरसे
- अज़हर इक़बाल
9
ज़मीन-ए-दिल इक अर्से बा'द जल-थल हो रही है
कोई बारिश मेरे अंदर मुसलसल हो रही है
लहू का रंग फैला है हमारे कैनवस पर
तेरी तस्वीर अब जा कर मुकम्मल हो रही है
हवा-ए-ताज़ा का झोंका चला आया कहाँ से
कि मुद्दत बा'द सी पानी में हलचल हो रही है
तुझे देखे से मुमकिन मग़्फ़िरत हो जाए उस की
तेरे बीमार की बस आज और कल हो रही है
वो साहब आ ही गई बंद-ए-क़बा खोलने लगे हैं
पहेली थी जो इक उलझी हुई हल हो रही है
- अज़हर इक़बाल
10
वो माहताब अभी बाम पर नहीं आया
मिरी दुआओं में शायद असर नहीं आया
बहुत अजीब है यारों बुलंदियों का तिलिस्म
जो एक बार गया लौट कर नहीं आया
ये काएनात की वुसअत खुली नहीं मुझ पर
मैं अपनी ज़ात से जब तक गुज़र नहीं आया
बहुत दिनों से है बे-शक्ल सी मेरी मिट्टी
बहुत दिनों से कोई कूज़ा-गर नहीं आया
बस एक लम्हे को बे-पैराहन उसे देखा
फिर इस के बाद मुझे कुछ नज़र नहीं आया
हम अब भी दश्त में ख़ेमा लगाए बैठे हैं
हमारे हिस्से में अपना ही घर नहीं आया
ज़मीन बाँझ न हो जाए कुछ कहो 'अज़हर'
सुख़न की शाख़ पे कब से समर नहीं आया
- अज़हर इक़बाल
ये तो थीं अज़हर इक़बाल साहब की कुछ ग़ज़लें। पर अभी भी Azhar Iqbal Shayari Collection अधूरा है क्योंकि अभी हमने उनके तन्हा अश'आर नहीं पढ़े। तो चलिए अब हम अज़हर साहब के चुनिंदा अश'आर देखते हैं।
अज़हर इक़बाल के चुनिंदा अश'आर
वो एक पक्षी जो गुंजन कर रहा है
वो मुझमे प्रेम सृजन कर रहा है
बहुत दिन हो गये है तुमसे बिछड़े
तुम्हें मिलने को अब मन कर रहा है
- अज़हर इक़बाल
हो गया आपका आगमन नींद में
छू कर गुजरी मुझको जो पवन नींद में
कैसे उद्धार होगा मेरे देश का
लोग करते है चिंतन मनन नींद में
- अज़हर इक़बाल
जिसके होने से मेरी रात है रौशन रौशन
चाँद में आज वही अक्स नज़र आएगा
- अज़हर इक़बाल
गुलाब चाँदनी-रातों पे वार आए हम
तुम्हारे होंटों का सदक़ा उतार आए हम
- अज़हर इक़बाल
गुमान है या किसी विश्वास में है
सभी अच्छे दिनों की आस में है
ये कैसा जश्न है घर वापसी का
अभी तो राम ही वनवास में है
- अज़हर इक़बाल
किस किस से तुम दोष छुपाओगे अपने
प्रिये अपना मन भी दर्पण होता है
- अज़हर इक़बाल
इतना संगीन पाप कौन करे
मेरे दुख पर विलाप कौन करे
चेतना मर चुकी है लोगों की
पाप पर पश्चाताप कौन करे
- अज़हर इक़बाल
हर एक सम्त यहाँ वहशतों का मस्कन है
जुनूँ के वास्ते सहरा ओ आशियाना क्या
- अज़हर इक़बाल
गाली को प्रणाम समझना पड़ता है
मधुशाला को धाम समझना पड़ता है
आधुनिक कहलाने की अंधी जिद में
रावण को भी राम समझना पड़ता है
- अज़हर इक़बाल
है अब भी बिस्तर-ए-जाँ पर तिरे बदन की शिकन
मैं ख़ुद ही मिटने लगा हूँ उसे मिटाते हुए
- अज़हर इक़बाल
हुआ ही क्या जो वो हमें मिला नहीं
बदन ही सिर्फ़ एक रास्ता नहीं
ये पहला इश्क़ है तुम्हारा सोच लो
मेरे लिए ये रास्ता नया नहीं
- अज़हर इक़बाल
नींद आएगी भला कैसे उसे शाम के बाद
रोटियाँ भी न मयस्सर हों जिसे काम के बाद
- अज़हर इक़बाल
कोई रात आ के ठहर गई मिरी ज़ात में
मिरा रौशनी से भी राब्ता नहीं हो रहा
- अज़हर इक़बाल
मंज़र मंज़र जी लो जितना जी पाओ
मौसम पल पल रंग बदलता रहता है
- अज़हर इक़बाल
दोस्तो, मुझे पूरी उम्मीद है कि आपको ये पोस्ट "Azhar Iqbal Shayari Collection" बेहद पसंद आया होगा। अपनी पसंदीदा ग़ज़ल या शे'र मुझे कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएँ। इसी तरह शायरी पढ़ने के लिए हमारे ब्लॉग पर आते रहें। जल्द ही मिलते हैं अगली शायरी कलेक्शन पोस्ट में। अंत तक बने रहने के लिए आपका शुक्रिया।
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