इन शब्दों को ध्यान से देखें :
दर्द-ए-दिल
नग़्मा-ए-पुरदर्द
इन दोनों शब्दों में एक चीज़ सामान्य है और वो है 'ए'. इस 'ए' को हम 'हर्फ़-ए-इज़ाफ़त' कहते हैं।
उर्दू भाषा में इज़ाफ़त के द्वारा दो शब्दों को अन्तर्सम्बन्धित किया जाता है। उदाहरण के तौर पर ऊपर के दोनों शब्दों को देखें : दिल के दर्द को दर्द-ए-दिल और पुर दर्द नग़्मा को नग़्मा-ए-पुरदर्द लिखा जा सकता है।
दर्द-ए-दिल में 'दर्द' को हर्फ़-ए-उला कहा जाएगा और 'दिल' को हर्फ़-ए-सानी।
आम तौर पर इज़ाफ़त के तीन रूप देखने को मिलते हैं :
1. का, के, की - इसमें शब्दों के बीच के अन्तर्सम्बन्ध दर्शाने के लिए का, के, की आदि शब्द का उपयोग किया जाता है।
2. विशेषण - इसमें दो शब्द से संज्ञा और विशेषण का सम्बन्ध होता है। उदाहरण - 'पुरदर्द नग़्मा' में नग़्मा संज्ञा है और 'दर्द भरा' विशेषण है।
3. इस्तेलाम - जब सूचना देने के लिए इज़ाफ़त का प्रयोग करते हैं तो उसे इस्तेलाम कहते हैं। उदाहरण - जब हम कहते हैं 'लखनऊ शहर' तो हम लखनऊ (संज्ञा) के बारे में बात कर रहे हैं जो कि एक शहर है इसलिए हम शहर-ए-लखनऊ भी कह सकते हैं।
इज़ाफ़त में मात्रा गणना के नियम :
1. हर्फ़-ए-इज़ाफ़त यानी 'ए' का मूल वज़्न 1 होता है।
2. अगर हर्फ़-ए-उला का आख़िरी अक्षर लघु है तो इज़ाफ़त का 'ए' जुड़ने के बाद भी वो लघु ही रहता है लेकिन हम यहाँ पर मात्रा उठा कर उसे 2 भी कर सकते हैं। उदाहरण - अहल-ए-दिल का मूल वज़न होगा अह 2 ले 1 दिल 2 लेकिन ज़रुरत पड़ने पर हम मात्रा उठा कर अह 2 ले 2 दिल 2 भी कर सकते हैं।
3. अगर हर्फ़-ए-उला के आख़िरी अक्षर के साथ कोई दीर्घ स्वर जुड़ा हुआ है तो इज़ाफ़त से 'ए' जुड़ने पर भी उस में कोई बदलाव नहीं आता। ध्यान रखें इस जगह पर 'ए' स्वतंत्र रूप से लिखा जाता है जो कि 1 या 2 किसी भी वज़्न में बाँधा जा सकता है।
उदाहरण 1 : शिकवा-ए-ग़म को 2222, 2122, 2112, 2212 में से किसी भी वज़्न में बाँधा जा सकता है।
उदाहरण 2 : साया-ए-ज़ुल्फ़ को 22221, 21221, 21121, 22121 में से किसी भी वज़्न में बाँधा जा सकता है।
नोट :
- इज़ाफ़त केवल उर्दू के भाषा व्याकरण में मान्य है हिंदी में नहीं इसलिए केवल उन्हीं शब्दों में इज़ाफ़त किया जा सकता है जो उर्दू, अरबी, और फ़ारसी मूल के हों।
- हिंदी और उर्दू के शब्द को मिला कर इज़ाफ़त करना भी ग़लत व अस्वीकृत है। उदाहरण के तौर पर दिल-ए-नादाँ की जगह हृदय-ए-नादाँ ग़लत है।
- रही बात कि एक मिसरे में कितनी बार इज़ाफ़त कर सकते हैं तो उसकी संख्या है ज़ियादा से ज़ियादा तीन बार। हालाँकि कई शायरों ने तीन से भी ज़ियादा बार एक मिसरे में इज़ाफ़त का इस्तेमाल किया है लेकिन तीन ही आम तौर पर मान्य है। उदाहरण - ग़ालिब का ये मिसरा देखें : "तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं"
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