आप सभी ने ग़ज़लें तो बहुत पढ़ी या सुनी होंगी और उनमें भी भिन्न-भिन्न प्रकार की ग़ज़लें। आज हम उनमें से ही एक प्रकार जो कि "ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल" है उसको समझेंगे। तो आइए समझते हैं।
ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़लें क्या होती हैं ?
ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़लें वो ग़ज़लें होती हैं जिन में रदीफ़ नहीं होती है। इन ग़ज़लें में केवल क़ाफ़िया ही होता है। उदाहण के तौर पर नीचे दी हुई मेरी एक ग़ज़ल पढ़ें आपको समझने में आसानी होगी।
ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल
इक तफ़ावुत है उसके मिरे दरमियाँअपनी दानाई होती रही बे-निशाँ
हिज्र की रात काटें तो काटें कहाँ
गुम-शुदा है ज़मीं, है ख़फ़ा आसमाँ
बीच में टोकना उसकी आदत है यार
और अगर पूछूँ तो बोलती है 'कहाँ?'
छोड़ा है नक़्श-ए-पा अपना दिल में मिरे
कितना दिलकश है इन यादों का कारवाँ
सिर्फ़ ख़ामोशी ही है पड़ोसन मिरी
क़ब्र ही बन गया है अब अपना मकाँ
- अच्युतम यादव 'अबतर'
इस ग़ज़ल में दरमियाँ, बे-निशाँ, आसमाँ, कहाँ, कारवाँ, और मकाँ क़वाफ़ी (क़ाफ़िया का बहुवचन) हैं लेकिन कोई रदीफ़ नहीं है। इसी तरह की ग़ज़लों को ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं।
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