प्रस्तुत ग़ज़ल एक तरही ग़ज़ल है जो अहमद फ़राज़ साहब की एक मक़बूल ग़ज़ल "सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं" मिसरे पर कही गई है जिसका मतला कुछ यूँ है :
सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं
ग़ज़ल
"सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं"
तमाम झरने जबल से उतर के देखते हैं
लरज़ते हैं मिरे लब उससे बात करने में
सो क्यूँ न नज़रों से ही बात कर के देखते हैं
इसी से जीने लगें ग़ालिबन हम अब जानाँ
कुछ वक़्त सही, तुम पे मर के देखते हैं
बदल सके नहीं ख़ुद के लिए हम अपने को
मगर है बात तिरी तो सुधर के देखते हैं
है उसका चेहरा अगर फूल की तरह नाज़ुक
तो क्यों न तितलियों जैसा ठहर के देखते हैं
लगाव है उसे अफ़सुर्दा लोगों से 'अबतर'
सो अपने आप को मायूस कर के देखते हैं
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