प्रस्तुत ग़ज़ल एक तरही ग़ज़ल है जो अहमद फ़राज़ साहब की एक मक़बूल ग़ज़ल "Ranjish hi sahi dil hi dukhane ke liye aa" मिसरे पर कही गई है जिसका मतला कुछ यूँ है :
रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
ग़ज़ल
"रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ"
लायक़ हूँ इसी के तो जताने के लिए आ
बर्बाद न कर पाया तिरा ग़म मुझे अब तक
यूँ कर उसी का हाथ बटाने के लिए आ
साथ उसके तू ख़ुश है नहीं ये जानता हूँ मैं
गर है, तो सबूत इसका दिखाने के लिए आ
अब अपनी कहानी नहीं है हाथों में मेरे
आ अपना ये किरदार बचाने के लिए आ
हो सकता है रिश्ता न हो जनमों का हमारा
फिलहाल ये दीवार गिराने के लिए आ
तेरे दिए अश्कों से हुईं नम मिरी आँखें
आ शर्म से पलकों को झुकाने के लिए आ
– अच्युतम यादव 'अबतर'
तो ये थी मेरी एक कोशिश अहमद फ़राज़ साहब की ज़मीन पर एक तरही ग़ज़ल कहने की। उम्मीद करता हूँ आपको ये ग़ज़ल पसंद आई होगी। अगर ऐसा है तो अपना पसंदीदा शे'र मुझे कॉमेंट बॉक्स के ज़रिए ज़रूर बताएँ।
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