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Akbar Allahabadi Shayari Collection

Akbar Allahabadi Shayari Collection


अकबर इलाहाबादी उर्दू शायरी की उन बुलंद आवाज़ों में से एक थे जिन्होंने अपने दौर की तहज़ीब, तालीम और समाजिक बदलावों को शायरी के ज़रिए बयान किया। उनके अशआर सिर्फ अल्फ़ाज़ नहीं, एक सोच, एक नजरिया थे। 

अकबर इलाहाबादी की शायरी ने हिंदुस्तानी तहज़ीब की गहराइयों को छुआ और आज भी उनकी बातों में एक दौर की सच्चाई ज़िंदा है। तो आइए, आज हम इस पोस्ट "Akbar Allahabadi Shayari Collection" में अकबर इलाहाबादी को और क़रीब से समझते हैं। 

अकबर इलाहाबादी की ग़ज़लें

कुछ आज इलाज-ए-दिल-ए-बीमार तो कर लें
ऐ जान-ए-जहाँ आओ ज़रा प्यार तो कर लें

मुँह हम को लगाता ही नहीं वो बुत-ए-काफ़िर
कहता है ये अल्लाह से इंकार तो कर लें

समझे हुए हैं काम निकलता है जुनूँ से
कुछ तजरबा-ए-सुब्हा-ओ-ज़ुन्नार तो कर लें

सौ जान से हो जाऊँगा राज़ी मैं सज़ा पर
पहले वो मुझे अपना गुनहगार तो कर लें

हज से हमें इंकार नहीं हज़रत-ए-वाइ'ज़
तौफ़-ए-हरम-ए-कूचा-ए-दिलदार तो कर लें

मंज़ूर वो क्यों करने लगे दा'वत-ए-'अकबर'
ख़ैर इस से है क्या बहस हम इसरार तो कर लें
– अकबर इलाहाबादी
2
हल्क़े नहीं हैं ज़ुल्फ़ के हल्क़े हैं जाल के
हाँ ऐ निगाह-ए-शौक़ ज़रा देख-भाल के

पहुँचे हैं ता-कमर जो तिरे गेसू-ए-रसा
मा'नी ये हैं कमर भी बराबर है बाल के

बोस-ओ-कनार-ओ-वस्ल-ए-हसीनाँ है ख़ूब शग़्ल
कमतर बुज़ुर्ग होंगे ख़िलाफ़ इस ख़याल के

क़ामत से तेरे साने-ए-क़ुदरत ने ऐ हसीं
दिखला दिया है हश्र को साँचे में ढाल के

शान-ए-दिमाग़ इश्क़ के जल्वे से ये बढ़ी
रखता है होश भी क़दम अपने सँभाल के

ज़ीनत मुक़द्दमा है मुसीबत का दहर में
सब शम्अ' को जलाते हैं साँचे में ढाल के

हस्ती के हक़ के सामने क्या अस्ल-ए-ईन-ओ-आँ
पुतले ये सब हैं आप के वहम-ओ-ख़याल के

तलवार ले के उठता है हर तालिब-ए-फ़रोग़
दौर-ए-फ़लक में हैं ये इशारे हिलाल के

पेचीदा ज़िंदगी के करो तुम मुक़द्दमे
दिखला ही देगी मौत नतीजा निकाल के
– अकबर इलाहाबादी
3
न हासिल हुआ सब्र-ओ-आराम दिल का
न निकला कभी तुम से कुछ काम दिल का

मोहब्बत का नश्शा रहे क्यूँ न हर-दम
भरा है मय-ए-इश्क़ से जाम दिल का

फँसाया तो आँखों ने दाम-ए-बला में
मगर इश्क़ में हो गया नाम दिल का

हुआ ख़्वाब रुस्वा ये इश्क़-ए-बुताँ में
ख़ुदा ही है अब मेरे बदनाम दिल का

ये बाँकी अदाएँ ये तिरछी निगाहें
यही ले गईं सब्र-ओ-आराम दिल का

धुआँ पहले उठता था आग़ाज़ था वो
हुआ ख़ाक अब ये है अंजाम दिल का

जब आग़ाज़-ए-उल्फ़त ही में जल रहा है
तो क्या ख़ाक बतलाऊँ अंजाम दिल का

ख़ुदा के लिए फेर दो मुझ को साहब
जो सरकार में कुछ न हो काम दिल का

पस-ए-मर्ग उन पर खुला हाल-ए-उल्फ़त
गई ले के रूह अपनी पैग़ाम दिल का

तड़पता हुआ यूँ न पाया हमेशा
कहूँ क्या मैं आग़ाज़-ओ-अंजाम दिल का

दिल उस बे-वफ़ा को जो देते हो 'अकबर'
तो कुछ सोच लो पहले अंजाम दिल का
– अकबर इलाहाबादी
4
सदियों फ़िलासफ़ी की चुनाँ और चुनीं रही
लेकिन ख़ुदा की बात जहाँ थी वहीं रही

ज़ोर-आज़माइयाँ हुईं साइंस की भी ख़ूब
ताक़त बढ़ी किसी की किसी में नहीं रही

दुनिया कभी न सुल्ह पे माइल हुई मगर
बाहम हमेशा बरसर-ए-पैकार-ओ-कीं रही

पाया अगर फ़रोग़ तो सिर्फ़ उन नुफ़ूस ने
जिन की कि ख़िज़्र-ए-राह फ़क़त शम-ए-दीं रही

अल्लाह ही की याद बहर-हाल ख़ल्क़ में
वज्ह-ए-सुकून-ए-ख़ातिर-ए-अंदोह-गीं रही
– अकबर इलाहाबादी
5
न बहते अश्क तो तासीर में सिवा होते
सदफ़ में रहते ये मोती तो बे-बहा होते

मुझ ऐसे रिंद से रखते ज़रूर ही उल्फ़त
जनाब-ए-शैख़ अगर आशिक़-ए-ख़ुदा होते

गुनाहगारों ने देखा जमाल-ए-रहमत को
कहाँ नसीब ये होता जो बे-ख़ता होते

जनाब-ए-हज़रत-ए-नासेह का वाह क्या कहना
जो एक बात न होती तो औलिया होते

मज़ाक़-ए-इश्क़ नहीं शेख़ में ये है अफ़्सोस
ये चाशनी भी जो होती तो क्या से क्या होते

महल्ल-ए-शुक्र हैं 'अकबर' ये दरफ़शाँ नज़्में
हर इक ज़बाँ को ये मोती नहीं अता होते
– अकबर इलाहाबादी
6
हसीनों के गले से लगती है ज़ंजीर सोने की
नज़र आती है क्या चमकी हुई तक़दीर सोने की

न दिल आता है क़ाबू में न नींद आती है आँखों में
शब-ए-फ़ुर्क़त में क्यूँ कर बन पड़े तदबीर सोने की

यहाँ बेदारियों से ख़ून-ए-दिल आँखों में आता है
गुलाबी करती है आँखों को वाँ तासीर सोने की

बहुत बेचैन हूँ नींद आ रही है रात जाती है
ख़ुदा के वास्ते जल्द अब करो तदबीर सोने की

ये ज़र्दा चीज़ है जो हर जगह है बाइ'स-ए-शौकत
सुनी है आलम-ए-बाला में भी ता'मीर सोने की

ज़रूरत क्या है रुकने की मिरे दिल से निकलता रह
हवस मुझ को नहीं ऐ नाला-ए-शब-गीर सोने की

छपर-खट याँ जो सोने की बनाई इस से क्या हासिल
करो ऐ ग़ाफ़िलो कुछ क़ब्र में तदबीर सोने की
– अकबर इलाहाबादी
7
दिल हो ख़राब दीन पे जो कुछ असर पड़े
अब कार-ए-आशिक़ी तो बहर-कैफ़ कर पड़े

इश्क़-ए-बुताँ का दीन पे जो कुछ असर पड़े
अब तो निबाहना है जब इक काम कर पड़े

मज़हब छुड़ाया इश्वा-ए-दुनिया ने शैख़ से
देखी जो रेल ऊँट से आख़िर उतर पड़े

बेताबियाँ नसीब न थीं वर्ना हम-नशीं
ये क्या ज़रूर था कि उन्हीं पर नज़र पड़े

बेहतर यही है क़स्द उधर का करें न वो
ऐसा न हो कि राह में दुश्मन का घर पड़े

हम चाहते हैं मेल वजूद-ओ-अदम में हो
मुमकिन तो है जो बीच में उन की कमर पड़े

दाना वही है दिल जो करे आप का ख़याल
बीना वही नज़र है कि जो आप पर पड़े

होनी न चाहिए थी मोहब्बत मगर हुई
पड़ना न चाहिए था ग़ज़ब में मगर पड़े

शैतान की न मान जो राहत-नसीब हो
अल्लाह को पुकार मुसीबत अगर पड़े

ऐ शैख़ उन बुतों की ये चालाकियाँ तो देख
निकले अगर हरम से तो 'अकबर' के घर पड़े
– अकबर इलाहाबादी
8
सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है
जीने का मज़ा है तो मिरी जान यही है

सब्र इस लिए अच्छा है कि आइंदा है उम्मीद
मौत इस लिए बेहतर है कि आसान यही है

तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है

गेसू के शरीक और भी थे क़त्ल में मेरे
क्या वज्ह है इस की कि परेशान यही है

उस बुत ने कहा बोसा-ए-बे-इज़्न प हँस कर
बस देख लिया आप का ईमान यही है

करते हैं ब-तदरीज वो ज़ुल्मों में इज़ाफ़ा
मुझ पर अगर उन का है कुछ एहसान यही है

हम फ़लसफ़े को कहते हैं गुमराही का बाइ'स
वो पेट दिखाते हैं कि शैतान यही है
– अकबर इलाहाबादी
9
मा'नी को भुला देती है सूरत है तो ये है
नेचर भी सबक़ सीख ले ज़ीनत है तो ये है

कमरे में जो हँसती हुई आई मिस-ए-राना
टीचर ने कहा इल्म की आफ़त है तो ये है

ये बात तो अच्छी है कि उल्फ़त हो मिसों से
हूर उन को समझते हैं क़यामत है तो ये है

पेचीदा मसाइल के लिए जाते हैं इंग्लैण्ड
ज़ुल्फ़ों में उलझ आते हैं शामत है तो ये है

पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से
साहब मिरे ईमान की क़ीमत है तो ये है
– अकबर इलाहाबादी
10
आज आराइश-ए-गेसू-ए-दोता होती है
फिर मिरी जान गिरफ़्तार-ए-बला होती है

शौक़-ए-पा-बोसी-ए-जानाँ मुझे बाक़ी है हनूज़
घास जो उगती है तुर्बत पे हिना होती है

फिर किसी काम का बाक़ी नहीं रहता इंसाँ
सच तो ये है कि मोहब्बत भी बला होती है

जो ज़मीं कूचा-ए-क़ातिल में निकलती है नई
वक़्फ़ वो बहर-ए-मज़ार-ए-शोहदा होती है

जिस ने देखी हो वो चितवन कोई उस से पूछे
जान क्यूँ-कर हदफ़-ए-तीर-ए-क़ज़ा होती है

नज़्अ' का वक़्त बुरा वक़्त है ख़ालिक़ की पनाह
है वो साअ'त कि क़यामत से सिवा होती है

रूह तो एक तरफ़ होती है रुख़्सत तन से
आरज़ू एक तरफ़ दिल से जुदा होती है

ख़ुद समझता हूँ कि रोने से भला क्या हासिल
पर करूँ क्या यूँही तस्कीन ज़रा होती है

रौंदते फिरते हैं वो मजमा-ए-अग़्यार के साथ
ख़ूब तौक़ीर-ए-मज़ार-ए-शोहदा होती है

मुर्ग़-ए-बिस्मिल की तरह लोट गया दिल मेरा
निगह-ए-नाज़ की तासीर भी क्या होती है

नाला कर लेने दें लिल्लाह न छेड़ें अहबाब
ज़ब्त करता हूँ तो तकलीफ़ सिवा होती है

जिस्म तो ख़ाक में मिल जाते हुए देखते हैं
रूह क्या जाने किधर जाती है क्या होती है

हूँ फ़रेब-ए-सितम-ए-यार का क़ाइल 'अकबर'
मरते मरते न खुला ये कि जफ़ा होती है
– अकबर इलाहाबादी
11
मिल गया शरअ' से शराब का रंग
ख़ूब बदला ग़रज़ जनाब का रंग

चल दिए शैख़ सुब्ह से पहले
उड़ चला था ज़रा ख़िज़ाब का रंग

पाई है तुम ने चाँद सी सूरत
आसमानी रहे नक़ाब का रंग

सुब्ह को आप हैं गुलाब का फूल
दोपहर को है आफ़्ताब का रंग

लाख जानें निसार हैं इस पर
दीदनी है तिरे शबाब का रंग

टिकटिकी बंध गई है बूढ़ों की
दीदनी है तिरे शबाब का रंग

जोश आता है होश जाता है
दीदनी है तिरे शबाब का रंग

रिंद-ए-आली-मक़ाम है 'अकबर'
बू है तक़्वा की और शराब का रंग
– अकबर इलाहाबादी
12
हरम क्या दैर क्या दोनों ये वीराँ होते जाते हैं
तुम्हारे मो'तक़िद गबरू मुसलमाँ होते जाते हैं

अलग सब से नज़र नीची ख़िराम आहिस्ता आहिस्ता
वो मुझ को दफ़्न कर के अब पशेमाँ होते जाते हैं

सिवा तिफ़्ली से भी हैं भोली बातें अब जवानी में
क़यामत है कि दिन पर दिन वो नादाँ होते जाते हैं

कहाँ से लाऊँगा ख़ून-ए-जिगर उन के खिलाने को
हज़ारों तरह के ग़म दिल के मेहमाँ होते जाते हैं

ख़राबी ख़ाना-हा-ए-ऐश की है दौर-ए-गर्दूं में
जो बाक़ी रह गए हैं वो भी वीराँ होते जाते हैं

बयाँ मैं क्या करूँ दिल खोल कर शौक़-ए-शहादत को
अभी से आप तो शमशीर-ए-उर्यां होते जाते हैं

ग़ज़ब की याद में अय्यारियाँ वल्लाह तुम को भी
ग़रज़ क़ाएल तुम्हारे हम तो ऐ जाँ होते जाते हैं

उधर हम से भी बातें आप करते हैं लगावट की
उधर ग़ैरों से भी कुछ अहद-ओ-पैमाँ होते जाते हैं
– अकबर इलाहाबादी
13
ख़ुशी क्या हो जो मेरी बात वो बुत मान जाता है
मज़ा तो बेहद आता है मगर ईमान जाता है

बनूँ कौंसिल में स्पीकर तो रुख़्सत क़िरअत-ए-मिस्री
करूँ क्या मेम्बरी जाती है या क़ुरआन जाता है

ज़वाल-ए-जाह ओ दौलत में बस इतनी बात अच्छी है
कि दुनिया में बख़ूबी आदमी पहचान जाता है

नई तहज़ीब में दिक़्क़त ज़ियादा तो नहीं होती
मज़ाहिब रहते हैं क़ाइम फ़क़त ईमान जाता है

थिएटर रात को और दिन को यारों की ये स्पीचें
दुहाई लाट साहब की मिरा ईमान जाता है

जहाँ दिल में ये आई कुछ कहूँ वो चल दिया उठ कर
ग़ज़ब है फ़ित्ना है ज़ालिम नज़र पहचान जाता है

चुनाँ बुरूँद सब्र अज़ दिल के क़िस्से याद आते हैं
तड़प जाता हूँ ये सुन कर कि अब ईमान जाता है
– अकबर इलाहाबादी
14
जो तुम्हारे लब-ए-जाँ-बख़्श का शैदा होगा
उठ भी जाएगा जहाँ से तो मसीहा होगा

वो तो मूसा हुआ जो तालिब-ए-दीदार हुआ
फिर वो क्या होगा कि जिस ने तुम्हें देखा होगा

क़ैस का ज़िक्र मिरे शान-ए-जुनूँ के आगे
अगले वक़्तों का कोई बादिया-पैमा होगा

आरज़ू है मुझे इक शख़्स से मिलने की बहुत
नाम क्या लूँ कोई अल्लाह का बंदा होगा

लाल-ए-लब का तिरे बोसा तो मैं लेता हूँ मगर
डर ये है ख़ून-ए-जिगर बाद में पीना होगा
– अकबर इलाहाबादी
15
मेरे हवास-ए-इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर
मजनूँ का नाम हो गया क़िस्मत की बात है

दिल जिस के हाथ में हो न हो उस पे दस्तरस
बे-शक ये अहल-ए-दिल पे मुसीबत की बात है

परवाना रेंगता रहे और शम्अ' जल बुझे
इस से ज़ियादा कौन सी ज़िल्लत की बात है

मुतलक़ नहीं मुहाल अजब मौत दहर में
मुझ को तो ये हयात ही हैरत की बात है

तिरछी नज़र से आप मुझे देखते हैं क्यूँ
दिल को ये छेड़ना ही शरारत की बात है

राज़ी तो हो गए हैं वो तासीर-ए-इश्क़ से
मौक़ा निकालना सो ये हिकमत की बात है
– अकबर इलाहाबादी
16
करूँ क्या ग़म कि दुनिया से मिला क्या
किसी को क्या मिला दुनिया में था क्या

ये दोनों मसअले हैं सख़्त मुश्किल
न पूछो तुम कि मैं क्या और ख़ुदा क्या

रहा मरने की तय्यारी में मसरूफ़
मिरा काम और इस दुनिया में था क्या

वही सदमा रहा फ़ुर्क़त का दिल पर
बहुत रोए मगर इस से हुआ क्या

तुम्हारे हुक्म के ताबे' हैं हम सब
तुम्हीं समझो बुरा क्या और भला क्या

इलाही 'अकबर'-ए-बेकस की हो ख़ैर
ये चर्चे हो रहे हैं जा-ब-जा क्या
– अकबर इलाहाबादी
17
मेहरबानी है अयादत को जो आते हैं मगर
किस तरह उन से हमारा हाल देखा जाएगा

दफ़्तर-ए-दुनिया उलट जाएगा बातिल यक-क़लम
ज़र्रा ज़र्रा सब का असली हाल देखा जाएगा

आफ़िशियल आमाल-नामा की न होगी कुछ सनद
हश्र में तो नामा-ए-आमाल देखा जाएगा

बच रहे ताऊन से तो अहल-ए-ग़फ़लत बोल उठे
अब तो मोहलत है फिर अगले साल देखा जाएगा

तह करो साहब नसब-नामी वो वक़्त आया है अब
बे-असर होगी शराफ़त माल देखा जाएगा

रख क़दम साबित न छोड़ 'अकबर' सिरात-ए-मुस्तक़ीम
ख़ैर चल जाने दे उन की चाल देखा जाएगा
– अकबर इलाहाबादी
18
ये सुस्त है तो फिर क्या वो तेज़ है तो फिर क्या
नेटिव जो है तो फिर क्या अंग्रेज़ है तो फिर क्या

रहना किसी से दब कर है अम्न को ज़रूरी
फिर कोई फ़िरक़ा हैबत-अंगेज़ है तो फिर क्या

रंज ओ ख़ुशी की सब में तक़्सीम है मुनासिब
बाबू जो है तो फिर क्या चंगेज़ है तो फिर क्या

हर रंग में हैं पाते बंदे ख़ुदा के रोज़ी
है पेंटर तो फिर क्या रंगरेज़ है तो फिर क्या

जैसी जिसे ज़रूरत वैसी ही उस की चीज़ें
याँ तख़्त है तो फिर क्या वाँ मेज़ है तो फिर क्या

मफ़क़ूद हैं अब इस के सुनने समझने वाले
मेरा सुख़न नसीहत-आमेज़ है तो फिर क्या
– अकबर इलाहाबादी
19
आई होगी किसी को हिज्र में मौत
मुझ को तो नींद भी नहीं आती

‘आक़िबत में बशर से है ये सिवा
जानवर को हँसी नहीं आती

हाल वो पूछते हैं मैं हूँ ख़मोश
क्या कहूँ शा'इरी नहीं आती

हम-नशीं बिक के अपना सर न फिरा
रंज में हूँ हँसी नहीं आती

'इश्क़ को दिल में दे जगह 'अकबर'
'इल्म से शा'इरी नहीं आती
– अकबर इलाहाबादी
20
कहाँ सबात का उस को ख़याल होता है
ज़माना माज़ी ही होने को हाल होता है

फ़रोग़-ए-बद्र न बाक़ी रहा न बुत का शबाब
ज़वाल ही के लिए हर कमाल होता है

मैं चाहता हूँ कि बस एक ही ख़याल रहे
मगर ख़याल से पैदा ख़याल होता है

बहुत पसंद है मुझ को ख़मोशी-ओ-‘उज़लत
दिल अपना होता है अपना ख़याल होता है

वो तोड़ते हैं तो कलियाँ शगुफ़्ता होती हैं
वो रौंदते हैं तो सब्ज़ा निहाल होता है

सोसाइटी से अलग हो तो ज़िंदगी दुश्वार
अगर मिलो तो नतीजा मलाल होता है

पसंद-ए-चश्म का हरगिज़ कुछ ए'तिबार नहीं
बस इक करिश्मा-ए-वहम-ओ-ख़याल होता है
– अकबर इलाहाबादी
तो ये थीं अकबर इलाहाबादी साहब की कुछ ग़ज़लें। लेकिन अकबर इलाहाबादी की शायरी बिना उनके तन्हा अश'आर के अधूरी है। तो चलिए, अब हम उनके कुछ अश'आर भी देखते हैं।

अकबर इलाहाबादी के चुनिंदा अश'आर 

हम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता
– अकबर इलाहाबादी
इश्क़ नाज़ुक-मिज़ाज है बेहद
अक़्ल का बोझ उठा नहीं सकता
– अकबर इलाहाबादी
मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
– अकबर इलाहाबादी
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ
बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ
– अकबर इलाहाबादी
आई होगी किसी को हिज्र में मौत
मुझ को तो नींद भी नहीं आती
– अकबर इलाहाबादी
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो
– अकबर इलाहाबादी
हंगामा है क्यूँ बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं मारा चोरी तो नहीं की है
– अकबर इलाहाबादी
इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है
पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है
– अकबर इलाहाबादी
बताऊँ आप को मरने के बाद क्या होगा
पोलाओ खाएँगे अहबाब फ़ातिहा होगा
– अकबर इलाहाबादी
हर ज़र्रा चमकता है अनवार-ए-इलाही से
हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है
– अकबर इलाहाबादी
मोहब्बत का तुम से असर क्या कहूँ
नज़र मिल गई दिल धड़कने लगा
– अकबर इलाहाबादी
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
– अकबर इलाहाबादी
हया से सर झुका लेना अदा से मुस्कुरा देना
हसीनों को भी कितना सहल है बिजली गिरा देना
– अकबर इलाहाबादी
जो कहा मैं ने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर
हँस के कहने लगा और आप को आता क्या है
– अकबर इलाहाबादी
उम्मीद करता हूँ कि आपको अकबर इलाहाबादी की शायरी पसंद आई होगी। इनमें से जो शे'र या ग़ज़ल आप को पसंद आए, मुझे कॉमेंट बॉक्स में ज़रूर बताएँ। अंत तक बने रहने के लिए शुक्रिया।

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