Momin Khan Momin Shayari Collection

शायरी की दुनिया के जिस दौर में दिल के ज़ख़्म और दर्द सुख़न में ढाले जा रहे थे, उसी दौर में एक शायर ऐसा भी उभरा जो दर्द को बयाँ नहीं बल्कि उसे जीता था। हम बात कर रहे हैं महान शायर मोमिन ख़ाँ मोमिन साहब की जिनके अश'आर में मोहब्बत की सादगी थी, तन्हाई की गहराई थी और एहसासात की वो तपिश थी जो सीने को जला दे। 

वो अपने लहजे में नर्मी लेकर आते थे, मगर हर शे'र में एक ऐसी कसक होती थी जो सुनने वाले को ख़ामोश कर दे। उनकी ग़ज़लों में इश्क़, हिज्र, और इंसानी जज़्बात का वो रंग है जिसे वक़्त मिटा न सका। आज भी उनकी शायरी सदियों की धूल में चमकती हुई मिलती है — जैसे कोई जाम जो वक़्त के साथ और निखर गया हो।

तो आइए, आज हम इस पोस्ट "Momin Khan Momin Shayari Collection" में मोमिन ख़ाँ मोमिन की शायरी पढ़ते हैं। 

मोमिन ख़ाँ मोमिन की ग़ज़लें

1
वो कहाँ साथ सुलाते हैं मुझे
ख़्वाब क्या क्या नज़र आते हैं मुझे

उस परी-वश से लगाते हैं मुझे
लोग दीवाना बनाते हैं मुझे

या रब उन का भी जनाज़ा उट्ठे
यार उस कू से उठाते हैं मुझे

अबरू-ए-तेग़ से ईमा है कि आ
क़त्ल करने को बुलाते हैं मुझे

बेवफ़ाई का अदू की है गिला
लुत्फ़ में भी वो सताते हैं मुझे

हैरत-ए-हुस्न से ये शक्ल बनी
कि वो आईना दिखाते हैं मुझे

फूँक दे आतिश-ए-दिल दाग़ मिरे
उस की ख़ू याद दिलाते हैं मुझे

गर कहे ग़म्ज़ा किसे क़त्ल करूँ
तो इशारत से बताते हैं मुझे

मैं तो उस ज़ुल्फ़ की बू पर ग़श हूँ
चारागर मुश्क सुँघाते हैं मुझे

शो'ला-रू कहते हैं अग़्यार को वो
अपने नज़दीक जलाते हैं मुझे

जाँ गई पर न गई जौर-कशी
बा'द-ए-मुर्दन भी दबाते हैं मुझे

वो जो कहते हैं तुझे आग लगे
मुज़्दा-ए-वस्ल सुनाते हैं मुझे

अब ये सूरत है कि ऐ पर्दा-नशीं
तुझ से अहबाब छुपाते हैं मुझे

'मोमिन' और दैर ख़ुदा ख़ैर करे
तौर बेढब नज़र आते हैं मुझे
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
2
डर तो मुझे किस का है कि मैं कुछ नहीं कहता
पर हाल ये इफ़शा है कि मैं कुछ नहीं कहता

नासेह ये गिला क्या है कि मैं कुछ नहीं कहता
तू कब मिरी सुनता है कि मैं कुछ नहीं कहता

मैं बोलूँ तो चुप होते हैं अब आप जभी तक
ये रंजिश-ए-बेजा है कि मैं कुछ नहीं कहता

कुछ ग़ैर से होंटों में कहे है ये जो पूछो
तू वूहीं मुकरता है कि मैं कुछ नहीं कहता

कब पास फटकने दूँ रक़ीबों को तुम्हारे
पर पास तुम्हारा है कि मैं कुछ नहीं कहता

नासेह को जो चाहूँ तो अभी ठीक बना दूँ
पर ख़ौफ़ ख़ुदा का है कि मैं कुछ नहीं कहता

क्या क्या न कहे ग़ैर की गर बात न पूछो
ये हौसला मेरा है कि मैं कुछ नहीं कहता

क्या कहिए नसीबों को कि अग़्यार का शिकवा
सुन सुन के वो चुपका है कि मैं कुछ नहीं कहता

मत पूछ कि किस वास्ते चुप लग गई ज़ालिम
बस क्या कहूँ मैं क्या है कि मैं कुछ नहीं कहता

चुपके से तिरे मिलने का घर वालों में तेरे
इस वास्ते चर्चा है कि मैं कुछ नहीं कहता

हाँ तंग-दहानी का न करने के लिए बात
है उज़्र पर ऐसा है कि मैं कुछ नहीं कहता

ऐ चारागरो क़ाबिल-ए-दरमाँ नहीं ये दर्द
वर्ना मुझे सौदा है कि मैं कुछ नहीं कहता

हर वक़्त है दुश्नाम हर इक बात में ताना
फिर उस पे भी कहता है कि मैं कुछ नहीं कहता

कुछ सुन के जो मैं चुप हूँ तो तुम कहते हो बोलो
समझो तो ये थोड़ा है कि मैं कुछ नहीं कहता

सुनता नहीं वो वर्ना ये सरगोशी-ए-अग़्यार
क्या मुझ को गवारा है कि मैं कुछ नहीं कहता

'मोमिन' ब-ख़ुदा सेहर-बयानी का जभी तक
हर एक को दावा है कि मैं कुछ नहीं कहता
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
3
तुम भी रहने लगे ख़फ़ा साहब
कहीं साया मिरा पड़ा साहब

है ये बंदा ही बेवफ़ा साहब
ग़ैर और तुम भले भला साहब

क्यूँ उलझते हो जुम्बिश-ए-लब से
ख़ैर है मैं ने क्या किया साहब

क्यूँ लगे देने ख़त्त-ए-आज़ादी
कुछ गुनह भी ग़ुलाम का साहब

हाए री छेड़ रात सुन सुन के
हाल मेरा कहा कि क्या साहब

दम-ए-आख़िर भी तुम नहीं आते
बंदगी अब कि मैं चला साहब

सितम आज़ार ज़ुल्म ओ जौर ओ जफ़ा
जो किया सो भला किया साहब

किस से बिगड़े थे किस पे ग़ुस्सा था
रात तुम किस पे थे ख़फ़ा साहब

किस को देते थे गालियाँ लाखों
किस का शब ज़िक्र-ए-ख़ैर था साहब

नाम-ए-इश्क़-ए-बुताँ न लो 'मोमिन'
कीजिए बस ख़ुदा ख़ुदा साहब
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
4
'मोमिन' ख़ुदा के वास्ते ऐसा मकाँ न छोड़
दोज़ख़ में डाल ख़ुल्द को कू-ए-बुताँ न छोड़

आशिक़ तो जानते हैं वो ऐ दिल यही सही
हर-चंद बे-असर है पर आह ओ फ़ुग़ाँ न छोड़

उस तबा-ए-नाज़नीं को कहाँ ताब-ए-इंफ़िआल
जासूस मेरे वास्ते ऐ बद-गुमाँ न छोड़

नाचार देंगे और किसी ख़ूब-रू को दिल
अच्छा तू अपनी ख़ू-ए-बद ऐ बद-ज़बाँ न छोड़

ज़ख़्मी किया उदू को तो मरना मुहाल है
क़ुर्बान जाऊँ तेरे मुझे नीम-जाँ न छोड़

कुछ कुछ दुरुस्त ज़िद से तिरी हो चले हैं वो
यक-चंद और कज-रवी ऐ आसमाँ न छोड़

जिस कूचे में गुज़ार सबा का न हो सके
ऐ अंदलीब उस के लिए गुलसिताँ न छोड़

गर फिर भी अश्क आएँ तो जानूँ कि इश्क़ है
हुक़्क़े का मुँह से ग़ैर की जानिब धुआँ न छोड़

होता है इस जहीम में हासिल विसाल-ए-जौर
'मोमिन' अजब बहिश्त है दैर-ए-मुग़ाँ न छोड़
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
5
अगर ग़फ़्लत से बाज़ आया जफ़ा की
तलाफ़ी की भी ज़ालिम ने तो क्या की

मरे आग़ाज़-ए-उल्फ़त में हम अफ़्सोस
उसे भी रह गई हसरत जफ़ा की

कभी इंसाफ़ ही देखा न दीदार
क़यामत अक्सर उस कू में रहा की

फ़लक के हाथ से मैं जा छुपूँ गर
ख़बर ला दे कोई तहतुस-सरा की

शब-ए-वस्ल-ए-अदू क्या क्या जला हूँ
हक़ीक़त खुल गई रोज़-ए-जज़ा की

चमन में कोई उस कू से न आया
गई बर्बाद सब मेहनत सबा की

कुशाद-ए-दिल पे बाँधी है कमर आज
नहीं है ख़ैरियत बंद-ए-क़बा की

किया जब इल्तिफ़ात उस ने ज़रा सा
पड़ी हम को हुसूल-ए-मुद्दआ की

कहा है ग़ैर ने तुम से मिरा हाल
कहे देती है बेबाकी अदा की

तुम्हें शोर-ए-फ़ुग़ाँ से मेरे क्या काम
ख़बर लो अपनी चश्म-ए-सुर्मा-सा की

दिया इल्म ओ हुनर हसरत-कशी को
फ़लक ने मुझ से ये कैसी दग़ा की

ग़म-ए-मक़्सद-रसी ता नज़्अ' और हम
अब आई मौत बख़्त-ए-ना-रसा की

मुझे ऐ दिल तिरी जल्दी ने मारा
नहीं तक़्सीर उस देर-आश्ना की

जफ़ा से थक गए तो भी न पूछा
कि तू ने किस तवक़्क़ो पर वफ़ा की

कहा उस बुत से मरता हूँ तो 'मोमिन'
कहा मैं क्या करूँ मर्ज़ी ख़ुदा की
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
6
थी वस्ल में भी फ़िक्र-ए-जुदाई तमाम शब
वो आए तो भी नींद न आई तमाम शब

वाँ ता'ना तीर-ए-यार यहाँ शिकवा ज़ख़्म-रेज़
बाहम थी किस मज़े की लड़ाई तमाम शब

रंगीं हैं ख़ून-ए-सर से वो हाथ आज-कल रहे
जिस हाथ में वो दस्त-ए-हिनाई तमाम शब

तालू से याँ ज़बान सहर तक नहीं लगी
था किस को शुग़ल-ए-नग़मा-ए-सराई तमाम शब

यक बार देखते ही मुझे ग़श जो आ गया
भूले थे वो भी होश-रुबाई तमाम शब

मर जाते क्यूँ न सुब्ह के होते ही हिज्र में
तकलीफ़ कैसी कैसी उठाई तमाम शब

गर्म-ए-जवाब-ए-शिकवा-ए-जौर-ए-अदू रहा
उस शोला-ख़ू ने जान जलाई तमाम शब

कहता है मेहर-वश तुम्हें क्यूँ ग़ैर गर नहीं
दिन भर हमेशा वस्ल जुदाई तमाम शब

धर पाँव आस्ताँ पे कि इस आरज़ू में आह
की है किसी ने नासिया-साई तमाम शब

'मोमिन' मैं अपने नालों के सदक़े कि कहते हैं
उन को भी आज नींद न आई तमाम शब
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
7
हम समझते हैं आज़माने को
उज़्र कुछ चाहिए सताने को

संग-ए-दर से तिरे निकाली आग
हम ने दुश्मन का घर जलाने को

सुब्ह-ए-इशरत है वो न शाम-ए-विसाल
हाए क्या हो गया ज़माने को

बुल-हवस रोए मेरे गिर्ये पे अब
मुँह कहाँ तेरे मुस्कुराने को

बर्क़ का आसमान पर है दिमाग़
फूँक कर मेरे आशियाने को

संग-ए-सौदा जुनूँ में लेते हैं
अपना हम मक़बरा बनाने को

शिकवा है ग़ैर की कुदूरत का
सो मिरे ख़ाक में मिलाने को

रोज़-ए-महशर भी होश गर आया
जाएँगे हम शराब-ख़ाने को

सुन के वस्फ़ उस पे मर गया हमदम
ख़ूब आया था ग़म उठाने को

कोई दिन हम जहाँ में बैठे हैं
आसमाँ के सितम उठाने को

चल के काबे में सज्दा कर 'मोमिन'
छोड़ उस बुत के आस्ताने को

नक़्श-ए-पा-ए-रक़ीब की मेहराब
नहीं ज़ेबिंदा सर झुकाने को
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
8
सब्र वहशत-असर न हो जाए
कहीं सहरा भी घर न हो जाए

रश्क-ए-पैग़ाम है इनाँ-कश-ए-दिल
नामा-बर राहबर न हो जाए

देखो मत देखियो कि आईना
ग़श तुम्हें देख कर न हो जाए

हिज्र-ए-पर्दा-नशीं में मरते हैं
ज़िंदगी पर्दा-ए-दर न हो जाए

कसरत-ए-सज्दा से वो नक़्श-ए-क़दम
कहीं पामाल-ए-सर न हो जाए

मेरे तग़ईर-ए-रंग को मत देख
तुझ को अपनी नज़र न हो जाए

मेरे आँसू न पोंछना देखो
कहीं दामान तर न हो जाए

बात नासेह से करते डरता हूँ
कि फ़ुग़ाँ बे-असर न हो जाए

ऐ क़यामत न आइयो जब तक
वो मिरी गोर पर न हो जाए

माना-ए-ज़ुल्म है तग़ाफ़ुल-ए-यार
बख़्त-ए-बद को ख़बर न हो जाए

ग़ैर से बे-हिजाब मिलते हो
शब-ए-आशिक़ सहर न हो जाए

रश्क-ए-दुश्मन का फ़ाएदा मालूम
मुफ़्त जी का ज़रर न हो जाए

ऐ दिल आहिस्ता आह-ए-ताब-शिकन
देख टुकड़े जिगर न हो जाए

'मोमिन' ईमाँ क़ुबूल दिल से मुझे
वो बुत आज़ुर्दा गर न हो जाए
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
9
आँखों से हया टपके है अंदाज़ तो देखो
है बुल-हवसों पर भी सितम नाज़ तो देखो

उस बुत के लिए मैं हवस-ए-हूर से गुज़रा
इस इश्क़-ए-ख़ुश-अंजाम का आग़ाज़ तो देखो

चश्मक मिरी वहशत पे है क्या हज़रत-ए-नासेह
तर्ज़-ए-निगह-ए-चश्म-ए-फ़ुसूँ-साज़ तो देखो

अरबाब-ए-हवस हार के भी जान पे खेले
कम-तालई-ए-आशिक़-ए-जाँ-बाज़ तो देखो

मज्लिस में मिरे ज़िक्र के आते ही उठे वो
बदनामी-ए-उश्शाक़ का एज़ाज़ तो देखो

महफ़िल में तुम अग़्यार को दुज़-दीदा नज़र से
मंज़ूर है पिन्हाँ न रहे राज़ तो देखो

उस ग़ैरत-ए-नाहीद की हर तान है दीपक
शो'ला सा लपक जाए है आवाज़ तो देखो

दें पाकी-ए-दामन की गवाही मिरे आँसू
उस यूसुफ़-ए-बेदर्द का ए'जाज़ तो देखो

जन्नत में भी 'मोमिन' न मिला हाए बुतों से
जौर-ए-अजल-ए-तफ़रक़ा-पर्दाज़ तो देखो
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
10
असर उस को ज़रा नहीं होता
रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता

बेवफ़ा कहने की शिकायत है
तो भी वादा-वफ़ा नहीं होता

ज़िक्र-ए-अग़्यार से हुआ मा'लूम
हर्फ़-ए-नासेह बुरा नहीं होता

किस को है ज़ौक़-ए-तल्ख़-कामी लेक
जंग बिन कुछ मज़ा नहीं होता

तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता

उस ने क्या जाने क्या किया ले कर
दिल किसी काम का नहीं होता

इम्तिहाँ कीजिए मिरा जब तक
शौक़ ज़ोर-आज़मा नहीं होता

एक दुश्मन कि चर्ख़ है न रहे
तुझ से ये ऐ दुआ नहीं होता

आह तूल-ए-अमल है रोज़-फ़ुज़ूँ
गरचे इक मुद्दआ नहीं होता

तुम मिरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता

हाल-ए-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता

रहम कर ख़स्म-ए-जान-ए-ग़ैर न हो
सब का दिल एक सा नहीं होता

दामन उस का जो है दराज़ तो हो
दस्त-ए-आशिक़ रसा नहीं होता

चारा-ए-दिल सिवाए सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता

क्यूँ सुने अर्ज़-ए-मुज़्तर-ए-'मोमिन'
सनम आख़िर ख़ुदा नहीं होता
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
11
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कहीं जो आप का दिल भी मिरी तरह

आता नहीं है वो तो किसी ढब से दाव में
बनती नहीं है मिलने की उस के कोई तरह

तश्बीह किस से दूँ कि तरह-दार की मिरे
सब से निराली वज़्अ है सब से नई तरह

मर चुक कहीं कि तू ग़म-ए-हिज्राँ से छूट जाए
कहते तो हैं भले की व-लेकिन बुरी तरह

ने ताब हिज्र में है न आराम वस्ल में
कम-बख़्त दिल को चैन नहीं है किसी तरह

लगती हैं गालियाँ भी तिरे मुँह से क्या भली
क़ुर्बान तेरे फिर मुझे कह ले उसी तरह

पामाल हम न होते फ़क़त जौर-ए-चर्ख़ से
आई हमारी जान पे आफ़त कई तरह

ने जाए वाँ बने है न बिन जाए चैन है
क्या कीजिए हमें तो है मुश्किल सभी तरह

मा'शूक़ और भी हैं बता दे जहान में
करता है कौन ज़ुल्म किसी पर तिरी तरह

हूँ जाँ-ब-लब बुतान-ए-सितमगर के हाथ से
क्या सब जहाँ में जीते हैं 'मोमिन' इसी तरह
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
12
दफ़्न जब ख़ाक में हम सोख़्ता-सामाँ होंगे
फ़िल्स माही के गुल-ए-शम-ए-शबिस्ताँ होंगे

नावक-अंदाज़ जिधर दीदा-ए-जानाँ होंगे
नीम-बिस्मिल कई होंगे कई बे-जाँ होंगे

ताब-ए-नज़्ज़ारा नहीं आइना क्या देखने दूँ
और बन जाएँगे तस्वीर जो हैराँ होंगे

तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख़्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिज्राँ होंगे

नासेहा दिल में तू इतना तो समझ अपने कि हम
लाख नादाँ हुए क्या तुझ से भी नादाँ होंगे

कर के ज़ख़्मी मुझे नादिम हों ये मुमकिन ही नहीं
गर वो होंगे भी तो बे-वक़्त पशेमाँ होंगे

एक हम हैं कि हुए ऐसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे

हम निकालेंगे सुन ऐ मौज-ए-हवा बल तेरा
उस की ज़ुल्फ़ों के अगर बाल परेशाँ होंगे

सब्र या रब मिरी वहशत का पड़ेगा कि नहीं
चारा-फ़रमा भी कभी क़ैदी-ए-ज़िंदाँ होंगे

मिन्नत-ए-हज़रत-ए-ईसा न उठाएँगे कभी
ज़िंदगी के लिए शर्मिंदा-ए-एहसाँ होंगे

तेरे दिल-तफ़्ता की तुर्बत पे अदू झूटा है
गुल न होंगे शरर-ए-आतिश-ए-सोज़ाँ होंगे

ग़ौर से देखते हैं तौफ़ को आहु-ए-हरम
क्या कहें उस के सग-ए-कूचा के क़ुर्बां होंगे

दाग़-ए-दिल निकलेंगे तुर्बत से मिरी जूँ लाला
ये वो अख़गर नहीं जो ख़ाक में पिन्हाँ होंगे

चाक पर्दे से ये ग़म्ज़े हैं तो ऐ पर्दा-नशीं
एक मैं क्या कि सभी चाक-ए-गरेबाँ होंगे

फिर बहार आई वही दश्त-नवर्दी होगी
फिर वही पाँव वही ख़ार-ए-मुग़ीलाँ होंगे

संग और हाथ वही वो ही सर ओ दाग़-ए-जुनून
वो ही हम होंगे वही दश्त ओ बयाबाँ होंगे

उम्र सारी तो कटी इश्क़-ए-बुताँ में 'मोमिन'
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
13
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम

हँसते जो देखते हैं किसी को किसी से हम
मुँह देख देख रोते हैं किस बे-कसी से हम

हम से न बोलो तुम इसे क्या कहते हैं भला
इंसाफ़ कीजे पूछते हैं आप ही से हम

बे-ज़ार जान से जो न होते तो माँगते
शाहिद शिकायतों पे तिरी मुद्दई से हम

उस कू में जा मरेंगे मदद ऐ हुजूम-ए-शौक़
आज और ज़ोर करते हैं बे-ताक़ती से हम

साहब ने इस ग़ुलाम को आज़ाद कर दिया
लो बंदगी कि छूट गए बंदगी से हम

बे-रोए मिस्ल-ए-अब्र न निकला ग़ुबार-ए-दिल
कहते थे उन को बर्क़-ए-तबस्सुम हँसी से हम

इन ना-तावनियों पे भी थे ख़ार-ए-राह-ए-ग़ैर
क्यूँ कर निकाले जाते न उस की गली से हम

क्या गुल खिलेगा देखिए है फ़स्ल-ए-गुल तो दूर
और सू-ए-दश्त भागते हैं कुछ अभी से हम

मुँह देखने से पहले भी किस दिन वो साफ़ था
बे-वज्ह क्यूँ ग़ुबार रखें आरसी से हम

है छेड़ इख़्तिलात भी ग़ैरों के सामने
हँसने के बदले रोएँ न क्यूँ गुदगुदी से हम

वहशत है इश्क़-ए-पर्दा-नशीं में दम-ए-बुका
मुँह ढाँकते हैं पर्दा-ए-चश्म-ए-परी से हम

क्या दिल को ले गया कोई बेगाना-आश्ना
क्यूँ अपने जी को लगते हैं कुछ अजनबी से हम

ले नाम आरज़ू का तो दिल को निकाल लें
'मोमिन' न हों जो रब्त रखें बिदअती से हम
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
14
क़हर है मौत है क़ज़ा है इश्क़
सच तो यूँ है बुरी बला है इश्क़

असर-ए-ग़म ज़रा बता देना
वो बहुत पूछते हैं क्या है इश्क़

आफ़त-ए-जाँ है कोई पर्दा-नशीं
कि मिरे दिल में आ छुपा है इश्क़

बुल-हवस और लाफ़-ए-जाँ-बाज़ी
खेल कैसा समझ लिया है इश्क़

वस्ल में एहतिमाल-ए-शादी-ए-मर्ग
चारागर दर्द-ए-बे-दवा है इश्क़

सूझे क्यूँकर फ़रेब-ए-दिलदारी
दुश्मन-आश्ना-नुमा है इश्क़

किस मलाहत-सिरिश्त को चाहा
तल्ख़-कामी पे बा-मज़ा है इश्क़

हम को तरजीह तुम पे है यानी
दिलरुबा हुस्न ओ जाँ-रुबा है इश्क़

देख हालत मिरी कहें काफ़िर
नाम दोज़ख़ का क्यूँ धरा है इश्क़

देखिए किस जगह डुबो देगा
मेरी कश्ती का नाख़ुदा है इश्क़

अब तो दिल इश्क़ का मज़ा चक्खा
हम न कहते थे क्यूँ बुरा है इश्क़

आप मुझ से निबाहेंगे सच है
बा-वफ़ा हुस्न ओ बेवफ़ा है इश्क़

मैं वो मजनून-ए-वहशत-आरा हूँ
नाम से मेरे भागता है इश्क़

क़ैस ओ फ़रहाद ओ वामिक़ ओ 'मोमिन'
मर गए सब ही क्या वबा है इश्क़
– मोमिन ख़ाँ मोमिन

📖 यह भी पढ़िए: Allama Iqbal Shayari in Hindi

15
ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना
मेरी तरफ़ भी ग़म्ज़ा-ए-ग़म्माज़ देखना

उड़ते ही रंग-ए-रुख़ मिरा नज़रों से था निहाँ
इस मुर्ग़-ए-पर-शिकस्ता की परवाज़ देखना

दुश्नाम-ए-यार तब-ए-हज़ीं पर गिराँ नहीं
ऐ हम-नफ़स नज़ाकत-ए-आवाज़ देखना

देख अपना हाल-ए-ज़ार मुनज्जिम हुआ रक़ीब
था साज़गार ताला-ए-ना-साज़ देखना

बद-काम का मआल बुरा है जज़ा के दिन
हाल-ए-सिपहर-ए-तफ़रक़ा-अंदाज़ देखना

मत रखियो गर्द-ए-तारिक-ए-उश्शाक़ पर क़दम
पामाल हो न जाए सर-अफ़राज़ देखना

मेरी निगाह-ए-ख़ीरा दिखाते हैं ग़ैर को
बे-ताक़ती पे सरज़निश-ए-नाज़ देखना

तर्क-ए-सनम भी कम नहीं सोज़-ए-जहीम से
'मोमिन' ग़म-ए-मआल का आग़ाज़ देखना
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
तो ये थीं मोमिन ख़ाँ मोमिन की कुछ ग़ज़लें। लेकिन जब बात आती है मोमिन ख़ाँ मोमिन की शायरी की तो वो बिना उनके तन्हा अश'आर के अधूरी है। तो चलिए, अब हम उनके कुछ चुनिंदा अश'आर भी पढ़ते हैं।

मोमिन ख़ाँ मोमिन के चुनिंदा अश'आर 

है कुछ तो बात 'मोमिन' जो छा गई ख़मोशी
किस बुत को दे दिया दिल क्यूँ बुत से बन गए हो
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
दीदा-ए-हैराँ ने तमाशा किया
देर तलक वो मुझे देखा किया
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
महशर में पास क्यूँ दम-ए-फ़रियाद आ गया
रहम उस ने कब किया था कि अब याद आ गया
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
माँगा करेंगे अब से दुआ हिज्र-ए-यार की
आख़िर तो दुश्मनी है असर को दुआ के साथ
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
शब जो मस्जिद में जा फँसे 'मोमिन'
रात काटी ख़ुदा ख़ुदा कर के
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
मैं भी कुछ ख़ुश नहीं वफ़ा कर के
तुम ने अच्छा किया निबाह न की
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
किसी का हुआ आज कल था किसी का
न है तू किसी का न होगा किसी का
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
रोया करेंगे आप भी पहरों इसी तरह
अटका कहीं जो आप का दिल भी मिरी तरह
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
हाल-ए-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
ठानी थी दिल में अब न मिलेंगे किसी से हम
पर क्या करें कि हो गए नाचार जी से हम
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
वो आए हैं पशेमाँ लाश पर अब
तुझे ऐ ज़िंदगी लाऊँ कहाँ से
– मोमिन ख़ाँ मोमिन
तो दोस्तों, उम्मीद करता हूँ कि आपको ये पोस्ट "Momin Khan Momin Shayari Collection" पसंद आई होगी। आप मुझे कॉमेंट बॉक्स के ज़रिए ज़रूर बताएँ कि कौन सी ग़ज़ल या कौन सा शे'र आपको सबसे ज़ियादा पसंद आया। अंत तक बने रहने के लिए शुक्रिया।