Bahadur Shah Zafar Shayari Collection

बहादुर शाह ज़फ़र, मुग़ल सल्तनत के अंतिम बादशाह थे, जो न केवल एक शासक बल्कि एक संवेदनशील शायर भी थे। उन्होंने अपने दुःख, पीड़ा और अकेलेपन को अल्फ़ाज़ में ढालकर उर्दू शायरी को एक नया रुख़ दिया। उनके अश'आर में उस दौर की टूटती सल्तनत की टीस और इंसानी जज़्बात की गहराई साफ़ नज़र आती है।

Bahadur Shah Zafar Shayari Collection में हमने उनकी कुछ ग़ज़लों और अश'आर को संजोया है जो उनके दिल से निकली सच्ची आवाज़ हैं। यह संग्रह ना सिर्फ़ उनके शायराना अंदाज़ को पेश करता है, बल्कि एक हारते हुए बादशाह के अंदर छुपे एक गहरे इंसान की झलक भी देता है। तो चलिए, सबसे पहले हम बहादुर शाह ज़फ़र की कुछ ग़ज़लें देखते हैं।  

बहादुर शाह ज़फ़र की ग़ज़लें                

1
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी
जैसी अब है तिरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी

ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र ओ क़रार
बे-क़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी

उस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू
कि तबीअ'त मिरी माइल कभी ऐसी तो न थी

अक्स-ए-रुख़्सार ने किस के है तुझे चमकाया
ताब तुझ में मह-ए-कामिल कभी ऐसी तो न थी

अब की जो राह-ए-मोहब्बत में उठाई तकलीफ़
सख़्त होती हमें मंज़िल कभी ऐसी तो न थी

पा-ए-कूबाँ कोई ज़िंदाँ में नया है मजनूँ
आती आवाज़-ए-सलासिल कभी ऐसी तो न थी

निगह-ए-यार को अब क्यूँ है तग़ाफ़ुल ऐ दिल
वो तिरे हाल से ग़ाफ़िल कभी ऐसी तो न थी

चश्म-ए-क़ातिल मिरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी

क्या सबब तू जो बिगड़ता है 'ज़फ़र' से हर बार
ख़ू तिरी हूर-शमाइल कभी ऐसी तो न थी
– बहादुर शाह ज़फ़र
2
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में

इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में

काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़बाँ
ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में

बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में

कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
– बहादुर शाह ज़फ़र
3
या मुझे अफ़सर-ए-शाहाना बनाया होता
या मिरा ताज गदायाना बनाया होता

अपना दीवाना बनाया मुझे होता तू ने
क्यूँ ख़िरद-मंद बनाया न बनाया होता

ख़ाकसारी के लिए गरचे बनाया था मुझे
काश ख़ाक-ए-दर-ए-जानाना बनाया होता

नश्शा-ए-इश्क़ का गर ज़र्फ़ दिया था मुझ को
उम्र का तंग न पैमाना बनाया होता

दिल-ए-सद-चाक बनाया तो बला से लेकिन
ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं का तिरे शाना बनाया होता

सूफ़ियों के जो न था लायक़-ए-सोहबत तो मुझे
क़ाबिल-ए-जलसा-ए-रिंदाना बनाया होता

था जलाना ही अगर दूरी-ए-साक़ी से मुझे
तो चराग़-ए-दर-ए-मय-ख़ाना बनाया होता

शोला-ए-हुस्न चमन में न दिखाया उस ने
वर्ना बुलबुल को भी परवाना बनाया होता

रोज़ मामूरा-ए-दुनिया में ख़राबी है 'ज़फ़र'
ऐसी बस्ती को तो वीराना बनाया होता
– बहादुर शाह ज़फ़र
4
हम ये तो नहीं कहते कि ग़म कह नहीं सकते
पर जो सबब-ए-ग़म है वो हम कह नहीं सकते

हम देखते हैं तुम में ख़ुदा जाने बुतो क्या
इस भेद को अल्लाह की क़सम कह नहीं सकते

रुस्वा-ए-जहाँ करता है रो रो के हमें तू
हम तुझे कुछ ऐ दीदा-ए-नम कह नहीं सकते

क्या पूछता है हम से तू ऐ शोख़ सितमगर
जो तू ने किए हम पे सितम कह नहीं सकते

है सब्र जिन्हें तल्ख़-कलामी को तुम्हारी
शर्बत ही बताते हैं सम कह नहीं सकते

जब कहते हैं कुछ बात रुकावट की तिरे हम
रुक जाता है ये सीने में दम कह नहीं सकते

अल्लाह रे तिरा रो'ब कि अहवाल-ए-दिल अपना
दे देते हैं हम कर के रक़म कह नहीं सकते

तूबा-ए-बहिश्ती है तुम्हारा क़द-ए-रा'ना
हम क्यूँकर कहें सर्व-ए-इरम कह नहीं सकते

जो हम पे शब-ए-हिज्र में उस माह-ए-लक़ा के
गुज़रे हैं 'ज़फ़र' रंज-ओ-अलम कह नहीं सकते
– बहादुर शाह ज़फ़र
5
इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
दुनिया है चल-चलाव का रस्ता सँभल के चल

कम-ज़र्फ़ पुर-ग़ुरूर ज़रा अपना ज़र्फ़ देख
मानिंद जोश-ए-ग़म न ज़ियादा उबल के चल

फ़ुर्सत है इक सदा की यहाँ सोज़-ए-दिल के साथ
उस पर सपंद-वार न इतना उछल के चल

ये ग़ोल-वश हैं इन को समझ तू न रहनुमा
साए से बच के अहल-ए-फ़रेब-व-दग़ल के चल

औरों के बल पे बल न कर इतना न चल निकल
बल है तो बल के बल पे तू कुछ अपने बल के चल

इंसाँ को कल का पुतला बनाया है उस ने आप
और आप ही वो कहता है पुतले को कल के चल

फिर आँखें भी तो दीं हैं कि रख देख कर क़दम
कहता है कौन तुझ को न चल चल सँभल के चल

है तुर्फ़ा अम्न-गाह निहाँ-ख़ाना-ए-अदम
आँखों के रू-ब-रू से तू लोगों के टल के चल

क्या चल सकेगा हम से कि पहचानते हैं हम
तू लाख अपनी चाल को ज़ालिम बदल के चल

है शम्अ सर के बल जो मोहब्बत में गर्म हो
परवाना अपने दिल से ये कहता है जल के चल

बुलबुल के होश निकहत-ए-गुल की तरह उड़ा
गुलशन में मेरे साथ ज़रा इत्र मल के चल

गर क़स्द सू-ए-दिल है तिरा ऐ निगाह-ए-यार
दो-चार तीर पैक से आगे अजल के चल

जो इम्तिहान-ए-तब्अ करे अपना ऐ 'ज़फ़र'
तो कह दो उस को तौर पे तू इस ग़ज़ल के चल

– बहादुर शाह ज़फ़र
6
देखो इंसाँ ख़ाक का पुतला बना क्या चीज़ है
बोलता है इस में क्या वो बोलता क्या चीज़ है

रू-ब-रू उस ज़ुल्फ़ के दाम-ए-बला क्या चीज़ है
उस निगह के सामने तीर-ए-क़ज़ा क्या चीज़ है

यूँ तो हैं सारे बुताँ ग़ारत-गर-ए-ईमाँ-ओ-दीं
एक वो काफ़िर सनम नाम-ए-ख़ुदा क्या चीज़ है

जिस ने दिल मेरा दिया दाम-ए-मोहब्बत में फँसा
वो नहीं मालूम मुज को नासेहा क्या चीज़ है

होवे इक क़तरा जो ज़हराब-ए-मोहब्बत का नसीब
ख़िज़्र फिर तो चश्मा-ए-आब-ए-बक़ा क्या चीज़ है

मर्ग ही सेहत है उस की मर्ग ही उस का इलाज
इश्क़ का बीमार क्या जाने दवा क्या चीज़ है

दिल मिरा बैठा है ले कर फिर मुझी से वो निगार
पूछता है हाथ में मेरे बता क्या चीज़ है

ख़ाक से पैदा हुए हैं देख रंगा-रंग गुल
है तो ये नाचीज़ लेकिन इस में क्या क्या चीज़ है

जिस की तुझ को जुस्तुजू है वो तुझी में है 'ज़फ़र'
ढूँडता फिर फिर के तो फिर जा-ब-जा क्या चीज़ है
– बहादुर शाह ज़फ़र
7
क्या कुछ न किया और हैं क्या कुछ नहीं करते
कुछ करते हैं ऐसा ब-ख़ुदा कुछ नहीं करते

अपने मरज़-ए-ग़म का हकीम और कोई है
हम और तबीबों की दवा कुछ नहीं करते

मालूम नहीं हम से हिजाब उन को है कैसा
औरों से तो वो शर्म ओ हया कुछ नहीं करते

गो करते हैं ज़ाहिर को सफ़ा अहल-ए-कुदूरत
पर दिल को नहीं करते सफ़ा कुछ नहीं करते

वो दिलबरी अब तक मिरी कुछ करते हैं लेकिन
तासीर तिरे नाले दिला कुछ नहीं करते

दिल हम ने दिया था तुझे उम्मीद-ए-वफ़ा पर
तुम हम से नहीं करते वफ़ा कुछ नहीं करते

करते हैं वो इस तरह 'ज़फ़र' दिल पे जफ़ाएँ
ज़ाहिर में ये जानो कि जफ़ा कुछ नहीं करते
– बहादुर शाह ज़फ़र
8
टुकड़े नहीं हैं आँसुओं में दिल के चार पाँच
सुरख़ाब बैठे पानी में हैं मिल के चार पाँच

मुँह खोले हैं ये ज़ख़्म जो बिस्मिल के चार पाँच
फिर लेंगे बोसे ख़ंजर-ए-क़ातिल के चार पाँच

कहने हैं मतलब उन से हमें दिल के चार पाँच
क्या कहिए एक मुँह हैं वहाँ मिल के चार पाँच

दरिया में गिर पड़ा जो मिरा अश्क एक गर्म
बुत-ख़ाने लब पे हो गए साहिल के चार पाँच

दो-चार लाशे अब भी पड़े तेरे दर पे हैं
और आगे दब चुके हैं तले गिल के चार पाँच

राहें हैं दो मजाज़ ओ हक़ीक़त है जिन का नाम
रस्ते नहीं हैं इश्क़ की मंज़िल के चार पाँच

रंज ओ त'अब मुसीबत ओ ग़म यास ओ दर्द ओ दाग़
आह ओ फ़ुग़ाँ रफ़ीक़ हैं ये दिल के चार पाँच

दो तीन झटके दूँ जूँ ही वहशत के ज़ोर में
ज़िंदाँ में टुकड़े होवें सलासिल के चार पाँच

फ़रहाद ओ क़ैस ओ वामिक़ ओ अज़रा थे चार दोस्त
अब हम भी आ मिले तो हुए मिल के चार पाँच

नाज़ ओ अदा ओ ग़म्ज़ा निगह पंजा-ए-मिज़ा
मारें हैं एक दिल को ये पिल पिल के चार पाँच

ईमा है ये कि देवेंगे नौ दिन के बा'द दिल
लिख भेजे ख़त में शे'र जो बे-दिल के चार पाँच

हीरे के नौ-रतन नहीं तेरे हुए हैं जम'
ये चाँदनी के फूल मगर खिल के चार पाँच

मीना-ए-नुह-फ़लक है कहाँ बादा-ए-नशात
शीशे हैं ये तो ज़हर-ए-हलाहल के चार पाँच

नाख़ुन करें हैं ज़ख़्मों को दो दो मिला के एक
थे आठ दस सो हो गए अब छिल के चार पाँच

गर अंजुम-ए-फ़लक से भी तादाद कीजिए
निकलें ज़ियादा दाग़ मिरे दिल के चार पाँच

मारें जो सर पे सिल को उठा कर क़लक़ से हम
दस पाँच टुकड़े सर के हों और सिल के चार पाँच

मान ऐ 'ज़फ़र' तू पंज-तन ओ चार-यार को
हैं सद्र-ए-दीन की यही महफ़िल के चार पाँच
– बहादुर शाह ज़फ़र
9
होते होते चश्म से आज अश्क-बारी रह गई
आबरू बारे तिरी अब्र-ए-बहारी रह गई

आते आते इस तरफ़ उन की सवारी रह गई
दिल की दिल में आरज़ू-ए-जाँ-निसारी रह गई

हम को ख़तरा था कि लोगों में था चर्चा और कुछ
बात ख़त आने से तेरे पर हमारी रह गई

टुकड़े टुकड़े हो के उड़ जाएगा सब संग-ए-मज़ार
दिल में बा'द-अज़-मर्ग कुछ गर बे-क़रारी रह गई

इतना मिलिए ख़ाक में जो ख़ाक में ढूँडे कोई
ख़ाकसारी ख़ाक की गर ख़ाकसारी रह गई

आओ गर आना है क्यूँ गिन गिन के रखते हो क़दम
और कोई दम की है याँ दम-शुमारी रह गई

हो गया जिस दिन से अपने दिल पर उस को इख़्तियार
इख़्तियार अपना गया बे-इख़्तियारी रह गई

जब क़दम उस काफ़िर-ए-बद-केश की जानिब बढ़े
दूर पहुँचे सौ क़दम परहेज़-गारी रह गई

खींचते ही तेग़ अदा के दम हुआ अपना हवा
आह दिल में आरज़ू-ए-ज़ख़्म-ए-कारी रह गई

और तो ग़म-ख़्वार सारे कर चुके ग़म-ख़्वार्गी
अब फ़क़त है एक ग़म की ग़म-गुसारी रह गई

शिकवा अय्यारी का यारों से बजा है ऐ 'ज़फ़र'
इस ज़माने में यही है रस्म-ए-यारी रह गई
– बहादुर शाह ज़फ़र
ज़फ़र की शायरी में जो दर्द और सौंदर्य है, वो हर शेर में महसूस होता है। अगर आपको उनकी शुरुआती ग़ज़लें पसंद आई हैं, तो Bahadur Shah Zafar ki Shayari का यह collection आपके लिए ही है।  यूँ ही बने रहिए हमारे साथ और पढ़ते रहिए।
10

हम ने तिरी ख़ातिर से दिल-ए-ज़ार भी छोड़ा
तू भी न हुआ यार और इक यार भी छोड़ा

क्या होगा रफ़ूगर से रफ़ू मेरा गरेबान
ऐ दस्त-ए-जुनूँ तू ने नहीं तार भी छोड़ा

दीं दे के गया कुफ़्र के भी काम से आशिक़
तस्बीह के साथ उस ने तो ज़ुन्नार भी छोड़ा

गोशे में तिरी चश्म-ए-सियह-मस्त के दिल ने
की जब से जगह ख़ाना-ए-ख़ु़म्मार भी छोड़ा

इस से है ग़रीबों को तसल्ली कि अजल ने
मुफ़्लिस को जो मारा तो न ज़रदार भी छोड़ा

टेढ़े न हो हम से रखो इख़्लास तो सीधा
तुम प्यार से रुकते हो तो लो प्यार भी छोड़ा

क्या छोड़ें असीरान-ए-मोहब्बत को वो जिस ने
सदक़े में न इक मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार भी छोड़ा

पहुँची मिरी रुस्वाई की क्यूँकर ख़बर उस को
उस शोख़ ने तो देखना अख़बार भी छोड़ा

करता था जो याँ आने का झूटा कभी इक़रार
मुद्दत से 'ज़फ़र' उस ने वो इक़रार भी छोड़ा
– बहादुर शाह ज़फ़र
11
गालियाँ तनख़्वाह ठहरी है अगर बट जाएगी
आशिक़ों के घर मिठाई लब शकर बट जाएगी

रू-ब-रू गर होगा यूसुफ़ और तू आ जाएगा
उस की जानिब से ज़ुलेख़ा की नज़र बट जाएगी

रहज़नों में नाज़-ओ-ग़म्ज़ा की ये जिंस-ए-दीन-ओ-दिल
जूँ मता-ए-बुर्दा आख़िर हम-दिगर बट जाएगी

होगा क्या गर बोल उट्ठे ग़ैर बातों में मिरी
फिर तबीअत मेरी ऐ बेदाद गर बट जाएगी

दौलत-ए-दुनिया नहीं जाने की हरगिज़ तेरे साथ
बाद तेरे सब यहीं ऐ बे-ख़बर बट जाएगी

कर ले ऐ दिल जान को भी रंज-ओ-ग़म में तू शरीक
ये जो मेहनत तुझ पे है कुछ कुछ मगर बट जाएगी

मूँग छाती पे जो दलते हैं किसी की देखना
जूतियों में दाल उन की ऐ 'ज़फ़र' बट जाएगी
– बहादुर शाह ज़फ़र
12
मैं हूँ आसी कि पुर-ख़ता कुछ हूँ
तेरा बंदा हूँ ऐ ख़ुदा कुछ हूँ

जुज़्व ओ कुल को नहीं समझता मैं
दिल में थोड़ा सा जानता कुछ हूँ

तुझ से उल्फ़त निबाहता हूँ मैं
बा-वफ़ा हूँ कि बेवफ़ा कुछ हूँ

जब से ना-आश्ना हूँ मैं सब से
तब कहीं उस से आश्ना कुछ हूँ

नश्शा-ए-इश्क़ ले उड़ा है मुझे
अब मज़े में उड़ा रहा कुछ हूँ

ख़्वाब मेरा है ऐन बेदारी
मैं तो उस में भी देखता कुछ हूँ

गरचे कुछ भी नहीं हूँ मैं लेकिन
उस पे भी कुछ न पूछो क्या कुछ हूँ

समझे वो अपना ख़ाकसार मुझे
ख़ाक-ए-रह हूँ कि ख़ाक-ए-पा कुछ हूँ

चश्म-ए-अल्ताफ़ फ़ख़्र-ए-दीं से हूँ
ऐ 'ज़फ़र' कुछ से हो गया कुछ हूँ
– बहादुर शाह ज़फ़र
13
सब रंग में उस गुल की मिरे शान है मौजूद
ग़ाफ़िल तू ज़रा देख वो हर आन है मौजूद

हर तार का दामन के मिरे कर के तबर्रुक
सर-बस्ता हर इक ख़ार-ए-बयाबान है मौजूद

उर्यानी-ए-तन है ये ब-अज़-ख़िलअत-ए-शाही
हम को ये तिरे इश्क़ में सामान है मौजूद

किस तरह लगावे कोई दामाँ को तिरे हाथ
होने को तू अब दस्त-ओ-गरेबान है मौजूद

लेता ही रहा रात तिरे रुख़ की बलाएँ
तू पूछ ले ये ज़ुल्फ़-ए-परेशान है मौजूद

तुम चश्म-ए-हक़ीक़त से अगर आप को देखो
आईना-ए-हक़ में दिल-ए-इंसान है मौजूद

कहता है 'ज़फ़र' हैं ये सुख़न आगे सभों के
जो कोई यहाँ साहिब-ए-इरफ़ान है मौजूद
– बहादुर शाह ज़फ़र
14 
वाँ इरादा आज उस क़ातिल के दिल में और है
और यहाँ कुछ आरज़ू बिस्मिल के दिल में और है

वस्ल की ठहरावे ज़ालिम तो किसी सूरत से आज
वर्ना ठहरी कुछ तिरे माइल के दिल में और है

है हिलाल ओ बद्र में इक नूर पर जो रौशनी
दिल में नाक़िस के है वो कामिल के दिल में और है

पहले तो मिलता है दिलदारी से क्या क्या दिलरुबा
बाँधता मंसूबे फिर वो मिल के दिल में और है

है मुझे बाद-अज़-सवाल-ए-बोसा ख़्वाहिश वस्ल की
ये तमन्ना एक इस साइल के दिल में और है

गो वो महफ़िल में न बोला पा गए चितवन से हम
आज कुछ उस रौनक़-ए-महफ़िल के दिल में और है

यूँ तो है वो ही दिल-ए-आलम के दिल में ऐ 'ज़फ़र'
उस का आलम मर्द-ए-साहब दिल के दिल में और है
– बहादुर शाह ज़फ़र
15
हिज्र के हाथ से अब ख़ाक पड़े जीने में
दर्द इक और उठा आह नया सीने में

ख़ून-ए-दिल पीने से जो कुछ है हलावत हम को
ये मज़ा और किसी को नहीं मय पीने में

दिल को किस शक्ल से अपने न मुसफ़्फ़ा रक्खूँ
जल्वा-गर यार की सूरत है इस आईने में

अश्क ओ लख़्त-ए-जिगर आँखों में नहीं हैं मेरे
हैं भरे लाल ओ गुहर इश्क़ के गंजीने में

शक्ल-ए-आईना 'ज़फ़र' से तो न रख दिल में ख़याल
कुछ मज़ा भी है भला जान मिरी लेने में
– बहादुर शाह ज़फ़र
16 
क्यूँकि हम दुनिया में आए कुछ सबब खुलता नहीं
इक सबब क्या भेद वाँ का सब का सब खुलता नहीं

पूछता है हाल भी गर वो तो मारे शर्म के
ग़ुंचा-ए-तस्वीर के मानिंद लब खुलता नहीं

शाहिद-ए-मक़्सूद तक पहुँचेंगे क्यूँकर देखिए
बंद है बाब-ए-तमन्ना है ग़ज़ब खुलता नहीं

बंद है जिस ख़ाना-ए-ज़िंदाँ में दीवाना तेरा
उस का दरवाज़ा परी-रू रोज़ ओ शब खुलता नहीं

दिल है ये ग़ुंचा नहीं है इस का उक़्दा ऐ सबा
खोलने का जब तलक आवे न ढब खुलता नहीं

इश्क़ ने जिन को किया ख़ातिर-गिरफ़्ता उन का दिल
लाख होवे गरचे सामान-ए-तरब खुलता नहीं

किस तरह मालूम होवे उस के दिल का मुद्दआ
मुझ से बातों में 'ज़फ़र' वो ग़ुंचा-लब खुलता नहीं
– बहादुर शाह ज़फ़र
अब जब आप बहादुर शाह ज़फ़र की 15 बेहतरीन ग़ज़लें पढ़ चुके हैं, तो आइए उनके चुनिंदा अश'आर भी देखते हैं। Bahadur Shah Zafar Shayari Collection का यह हिस्सा उनकी सोच की सादगी और एहसास की गहराई को दो मिसरों में समेटे हुए है। 

 बहादुर शाह ज़फ़र के चुनिंदा अश'आर

इन हसरतों से कह दो कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में
– बहादुर शाह ज़फ़र
तुम ने किया न याद कभी भूल कर हमें
हम ने तुम्हारी याद में सब कुछ भुला दिया
– बहादुर शाह ज़फ़र
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
– बहादुर शाह ज़फ़र
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में
– बहादुर शाह ज़फ़र
हाल-ए-दिल क्यूँ कर करें अपना बयाँ अच्छी तरह
रू-ब-रू उन के नहीं चलती ज़बाँ अच्छी तरह
– बहादुर शाह ज़फ़र
तू कहीं हो दिल-ए-दीवाना वहाँ पहुँचेगा
शम्अ होगी जहाँ परवाना वहाँ पहुँचेगा
– बहादुर शाह ज़फ़र
न दरवेशों का ख़िर्क़ा चाहिए न ताज-ए-शाहाना
मुझे तो होश दे इतना रहूँ मैं तुझ पे दीवाना
– बहादुर शाह ज़फ़र
औरों के बल पे बल न कर इतना न चल निकल
बल है तो बल के बल पे तू कुछ अपने बल के चल
– बहादुर शाह ज़फ़र
मर्ग ही सेहत है उस की मर्ग ही उस का इलाज
इश्क़ का बीमार क्या जाने दवा क्या चीज़ है
– बहादुर शाह ज़फ़र
चाहिए उस का तसव्वुर ही से नक़्शा खींचना
देख कर तस्वीर को तस्वीर फिर खींची तो क्या
– बहादुर शाह ज़फ़र
न कोहकन है न मजनूँ कि थे मिरे हमदर्द
मैं अपना दर्द-ए-मोहब्बत कहूँ तो किस से कहूँ
– बहादुर शाह ज़फ़र
क्या पूछता है हम से तू ऐ शोख़ सितमगर
जो तू ने किए हम पे सितम कह नहीं सकते
– बहादुर शाह ज़फ़र
भरी है दिल में जो हसरत कहूँ तो किस से कहूँ
सुने है कौन मुसीबत कहूँ तो किस से कहूँ
– बहादुर शाह ज़फ़र
मोहब्बत चाहिए बाहम हमें भी हो तुम्हें भी हो
ख़ुशी हो इस में या हो ग़म हमें भी हो तुम्हें भी हो
– बहादुर शाह ज़फ़र
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में
– बहादुर शाह ज़फ़र
Bahadur Shah Zafar Shayari Collection सिर्फ़ शायरी नहीं, एक ऐतिहासिक एहसास है — जो वतन की मोहब्बत, तन्हाई की टीस और रूह की सादगी बयाँ करती है। इस संग्रह के ज़रिये हमने ज़फ़र की कलम की ख़ूबसूरती को आप तक पहुँचाने की कोशिश की है। अगर आपको यह संग्रह पसंद आया हो या कोई शे'र दिल को छू गया हो, तो नीचे कॉमेंट करके ज़रूर बताएँ। आपकी राय हमारे लिए क़ीमती है और हमें और बेहतर काम करने की प्रेरणा देती है।