11212 11212 11212 11212 बह्र पर ग़ज़ल
कभी मैं चलूँ कभी तू चले कभी बे-मज़ा ये सफ़र न हो
किसे मंज़िलों की तलाश है हमें चलते रहने का डर न हो
कहाँ शब है और कहाँ सहर कहाँ धूप और कहाँ चाँदनी
मैं तिरे गुमान में ही रहूँ मुझे इन सभी की ख़बर न हो
गिला मुझसे हो उसे या-ख़ुदा हाँ मगर फ़िराक़ न हो कभी
कि फ़िराक़-ए-यार अगर हुआ, तो ये दास्तान अमर न हो
ये जो आँसुओं का लिफ़ाफ़ा है कई दर्द इस में पले बढ़े
कभी झाँक ले मिरी आँख में तुझे एतिबार अगर न हो
न अयाँ हुईं मिरी ख़ामियाँ न अयाँ हुईं तिरी ख़ामियाँ
कोई करना चाहे भी गर अयाँ तो सदा में उस की असर न हो
- Achyutam Yadav 'Abtar'
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