वो शब्द या शब्दों का समूह जो क़ाफ़िए के ठीक बाद आए और हर शे'र में एक समान रहे, रदीफ़ कहलाते हैं। रदीफ़ ग़ज़ल के मूल तत्वों में से एक है जिससे ग़ज़ल की ख़ूबसूरती और बढ़ जाती है। ध्यान रहे कि ग़ज़ल बिना रदीफ़ के भी हो सकती है। वो ग़ज़लें जिनमें रदीफ़ नहीं होती हैं उन्हें हम ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं।
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लेकिन कई बार मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते वक़्त नए शायर ऐसे शे'र कह देते हैं जिनमें कोई न कोई रदीफ़ दोष होता है। तो आइए, इस ब्लॉग पोस्ट में हम उन दोषों के माध्यम से रदीफ़ के नियम समझते हैं।
ग़ज़ल में होने वाले रदीफ़ के दोष
1. रदीफ़ का हर्फ़ बदलना : हम रदीफ़ को या इसके अंश को बदल नहीं सकते। अगर ऐसा किया गया तो शे'र में रदीफ़ का दोष पैदा हो जाएगा। उदाहरण :
गुल-ए-तर भले आप के हो गए
लब-ए-गुल मगर ख़ार से हो गए
ज़रा उम्र का फ़ासला ही है वज्ह
कि ता-उम्र के फ़ासले हो गया
यहाँ रदीफ़ है 'हो गए' और दूसरे शे'र में रदीफ़ बदल गया जो कि ग़लत है।
2. तहलीली रदीफ़ : इस तरह की रदीफ़ में क़ाफ़िया और रदीफ़ का योग हो जाता है लेकिन क़ाफ़िया और रदीफ़ अपना-अपना स्थान नहीं खोते हैं। उदाहरण :
सब से मिलता है जो रो कर
रह न जाए ख़ुद को खो कर
ले मज़ा आवारगी का
मंज़िलों को मार ठोकर
- वीनस केसरी
अगर मतला देखें तो रदीफ़ है 'कर' लेकिन दूसरे शे'र में क़ाफ़िया और रदीफ़ का योग हो गया मगर उनका स्थान नहीं बदला। इसे ही तहलीली रदीफ़ कहते हैं। इस बात का ध्यान रखें कि इस पर बहुत मतभेद रहा है क्योंकि बहुत से शायरों ने इसे दोष न मानकर गुड़ माना है और अपनी ग़ज़लों में ख़ूब इस्तेमाल भी किया है।
3. तक़ाबुले रदीफ़ : अगर ग़ज़ल में मतला और हुस्ने-मतला के अलावा किसी शे'र के मिसरा-ए-उला में रदीफ़ का तुकांत अंश आ जाता है तो उसे तक़ाबुले रदीफ़ दोष कहते हैं।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ग़ज़ल का हर शे'र स्वतंत्र होता है और अगर इस रदीफ़ दोष के साथ कोई अपना शे'र सुनाए तो सुनने वाले को वो शे'र मतला लग सकता है जो कि वास्तव में मतला नहीं है। हालाँकि इस दोष को लेकर कोई बहुत ज़ियादा सख़्ती नहीं है इसलिए कई शायरों की ग़ज़लों में ये दोष पाया भी जाता है। अगर मुम्किन हो तो इस दोष से बचें मगर अगर शे'र की शरियत से समझौता करना पड़ रहा हो तो इस दोष के साथ भी वो शे'र मान्य होगा। उदाहरण :
ये ख़ुद तो जान गया हूँ कि क्या हुआ है मुझे
तुझे ये कैसे बताऊँ तेरा नशा है मुझे
वो हर्फ़-हर्फ़ मुझे याद कर चुका है भले
मुझे पता है कहाँ तक समझ सका है मुझे
- वीनस केसरी
दूसरे शे'र को अगर स्वतंत्र रूप से पढ़ा जाए तो लगेगा कि 'भले' और 'मुझे' हम-क़ाफ़िया हैं इसलिए ये मतला है। इसी से बचने के लिए हमें पहले से ही इस दोष को ध्यान में रखना चाहिए ताकि ऐसी नौबत न आए।
4. इज्तिमाए-रदीफ़ैन : जब मिसरा-ए-उला का आख़िरी लफ़्ज़ या पूरा का पूरा शब्द समूह ही न केवल आवाज़ के लिहाज़ से बल्कि बनावट के लिहाज़ से भी रदीफ़ से हू-ब-हू मिल जाए तो वो इज्तिमाए-रदीफ़ैन का दोष कहलाता है।उदाहरण -
इश्क़ में ऐसा होता है
बात जान पर आती है
बात जान पर आती है
यहाँ दोनों मिसरों के आख़िर में 'है' आ रहा है जिसकी वजह से इज्तिमाए-रदीफ़ैन का दोष उत्पन्न हो रहा है।
तो दोस्तो, उम्मीद करता हूँ कि आपको रदीफ़ के नियम व दोष समझ में आ गए होंगे। मेरा कहना है कि जितना भी हो सके ग़ज़लें पढ़ा करें। इससे आप ख़ुद देखेंगे कि कैसे उस्ताद शायरों ने रदीफ़ ली है और कैसे उसे अपनी पूरी ग़ज़ल में निभाई है। आपको शुरुआत में तक़लीफ़ आ सकती है मगर लगातार कोशिश करते रहें। ग़ज़ल कहने में वक़्त लगता है और अच्छी ग़ज़ल कहने में और ज़ियादा वक़्त लगता है।
मैं इस ब्लॉग के ज़रिए शायरी से जुड़ी बारीकियाँ समझाता रहता हूँ। आप हमारा Blog सेक्शन ज़रूर देखें। आपको बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। आज के लिए इतना काफ़ी है। जल्द ही मिलते हैं अगले ब्लॉग में। अंत तक बने रहने के लिए आपका शुक्रिया।
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