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Mirza Ghalib Shayari in Hindi

Mirza Ghalib Shayari in Hindi


मिर्ज़ा ग़ालिब - एक ऐसा नाम जिसके बग़ैर शायरी की दुनिया अधूरी है। इस नाम से तो हर कोई वाक़िफ़ है। हो भी क्यों न, ग़ालिब साहब उर्दू साहित्य के एक अटूट स्तंभ हैं। तो आइए इस पोस्ट "Mirza Ghalib Shayari in Hindi" में आज हम उनकी चुनिंदा ग़ज़लें पढ़ते हैं।

मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें

है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से
तंग आए हैं हम ऐसे ख़ुशामद-तलबों से

है दौर-ए-क़दह वज्ह-ए-परेशानी-ए-सहबा
यक-बार लगा दो ख़ुम-ए-मय मेरे लबों से

रिंदाना-ए-दर-ए-मय-कदा गुस्ताख़ हैं ज़ाहिद
ज़िन्हार न होना तरफ़ इन बे-अदबों से

बेदाद-ए-वफ़ा देख कि जाती रही आख़िर
हर-चंद मिरी जान को था रब्त लबों से

क्या पूछे है बर-ख़ुद ग़लती-हा-ए-अज़ीज़ाँ
ख़्वारी को भी इक आर है अआली-नसबों से

गो तुम को रज़ा-जूई-ए-अग़्यार है लेकिन
जाती है मुलाक़ात कब ऐसे सबबों से

मत पूछ 'असद' वअ'दा-ए-कम-फ़ुर्सती-ए-ज़ीस्त
दो दिन भी जो काटे तू क़यामत तअबों से


हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर यूँ दम-ब-दम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले

हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जाम-ए-जम निकले

हुई जिन से तवक़्क़ो' ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मुअ'य्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती

क्यूँ न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती

दाग़-ए-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ चारा-गर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

का'बा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती


हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है

न शो'ले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोख़-ए-तुंद-ख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हम-सुख़न तुम से
वगर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारे जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिस के लिए हम को हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा ओ क़दह ओ कूज़ा ओ सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है

हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में 'ग़ालिब' की आबरू क्या है


बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे

इक खेल है औरंग-ए-सुलैमाँ मिरे नज़दीक
इक बात है एजाज़-ए-मसीहा मिरे आगे

जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे मंज़ूर
जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मिरे आगे

होता है निहाँ गर्द में सहरा मिरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे आगे

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे

सच कहते हो ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा हूँ न क्यूँ हूँ
बैठा है बुत-ए-आइना-सीमा मिरे आगे

फिर देखिए अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मिरे आगे

नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है मैं रश्क से गुज़रा
क्यूँकर कहूँ लो नाम न उन का मिरे आगे

ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे

आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे

ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूँ मर नहीं जाते
आई शब-ए-हिज्राँ की तमन्ना मिरे आगे

है मौजज़न इक क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ काश यही हो
आता है अभी देखिए क्या क्या मिरे आगे

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे

हम-पेशा ओ हम-मशरब ओ हमराज़ है मेरा
'ग़ालिब' को बुरा क्यूँ कहो अच्छा मिरे आगे

मिर्ज़ा ग़ालिब की यह ग़ज़ल मुझे सबसे ज़ियादा पसंद है। इस ग़ज़ल का हर एक शे'र दिल जीत लेता है और अपने आप ही मुँह से 'वाह' निकल जाता है। जब कभी भी मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी का ज़िक्र होता है मुझे उनकी ये ग़ज़ल याद आ जाती है।
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए क्यूँ

दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाए क्यूँ

जब वो जमाल-ए-दिल-फ़रोज़ सूरत-ए-मेहर-ए-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़ पर्दे में मुँह छुपाए क्यूँ

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही सामने तेरे आए क्यूँ

क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ

हुस्न और उस पे हुस्न-ए-ज़न रह गई बुल-हवस की शर्म
अपने पे ए'तिमाद है ग़ैर को आज़माए क्यूँ

वाँ वो ग़ुरूर-ए-इज्ज़-ओ-नाज़ याँ ये हिजाब-ए-पास-ए-वज़अ
राह में हम मिलें कहाँ बज़्म में वो बुलाए क्यूँ

हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो बेवफ़ा सही
जिस को हो दीन ओ दिल अज़ीज़ उस की गली में जाए क्यूँ

'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ

तपिश से मेरी वक़्फ़-ए-कशमकश हर तार-ए-बिस्तर है
मिरा सर रंज-ए-बालीं है मिरा तन बार-ए-बिस्तर है

सरिश्क-ए-सर ब-सहरा दादा नूर-उल-ऐन-ए-दामन है
दिल-ए-बे-दस्त-ओ-पा उफ़्तादा बर-ख़ुरदार-ए-बिस्तर है

ख़ुशा इक़बाल-ए-रंजूरी 'अयादत को तुम आए हो
फ़रोग-ए-शम-ए-बालीं ताले'-ए-बेदार-ए-बिस्तर है

ब-तूफ़ाँ-गाह-ए-जोश-ए-इज़्तिराब-ए-शाम-ए-तन्हाई
शुआ-ए-आफ़्ताब-ए-सुब्ह-ए-महशर तार-ए-बिस्तर है

अभी आती है बू बालिश से उस की ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं की
हमारी दीद को ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा आर-ए-बिस्तर है

कहूँ क्या दिल की क्या हालत है हिज्र-ए-यार में ग़ालिब
कि बेताबी से हर-यक तार-ए-बिस्तर ख़ार-ए-बिस्तर है

वो मिरी चीन-ए-जबीं से ग़म-ए-पिन्हाँ समझा
राज़-ए-मक्तूब ब-बे-रब्ती-ए-उनवाँ समझा

यक अलिफ़ बेश नहीं सैक़ल-ए-आईना हनूज़
चाक करता हूँ मैं जब से कि गरेबाँ समझा

शरह-ए-असबाब-ए-गिरफ़्तारी-ए-ख़ातिर मत पूछ
इस क़दर तंग हुआ दिल कि मैं ज़िंदाँ समझा

बद-गुमानी ने न चाहा उसे सरगर्म-ए-ख़िराम
रुख़ पे हर क़तरा अरक़ दीदा-ए-हैराँ समझा

इज्ज़ से अपने ये जाना कि वो बद-ख़ू होगा
नब्ज़-ए-ख़स से तपिश-ए-शोला-ए-सोज़ाँ समझा

सफ़र-ए-इश्क़ में की ज़ोफ़ ने राहत-तलबी
हर क़दम साए को मैं अपने शबिस्ताँ समझा

था गुरेज़ाँ मिज़ा-ए-यार से दिल ता दम-ए-मर्ग
दफ़-ए-पैकान-ए-क़ज़ा इस क़दर आसाँ समझा

दिल दिया जान के क्यूँ उस को वफ़ादार 'असद'
ग़लती की कि जो काफ़िर को मुसलमाँ समझा

हम ने वहशत-कदा-ए-बज़्म-ए-जहाँ में जूँ शम्अ'
शो'ला-ए-इश्क़ को अपना सर-ओ-सामाँ समझा

मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
गर मैं ने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था

है एक तीर जिस में दोनों छिदे पड़े हैं
वो दिन गए कि अपना दिल से जिगर जुदा था

दरमांदगी में 'ग़ालिब' कुछ बन पड़े तो जानूँ
जब रिश्ता बे-गिरह था नाख़ुन गिरह-कुशा था

मुज़्दा ऐ ज़ौक़-ए-असीरी कि नज़र आता है
दाम-ए-ख़ाली क़फ़स-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार के पास

जिगर-ए-तिश्ना-ए-आज़ार तसल्ली न हुआ
जू-ए-ख़ूँ हम ने बहाई बुन-ए-हर ख़ार के पास

मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें है है
ख़ूब वक़्त आए तुम इस आशिक़-ए-बीमार के पास

मैं भी रुक रुक के न मरता जो ज़बाँ के बदले
दशना इक तेज़ सा होता मिरे ग़म-ख़्वार के पास

दहन-ए-शेर में जा बैठे लेकिन ऐ दिल
न खड़े हो जिए ख़ूबान-ए-दिल-आज़ार के पास

देख कर तुझ को चमन बस-कि नुमू करता है
ख़ुद-ब-ख़ुद पहुँचे है गुल गोशा-ए-दस्तार के पास

मर गया फोड़ के सर ग़ालिब-ए-वहशी है है
बैठना उस का वो आ कर तिरी दीवार के पास

चाक की ख़्वाहिश अगर वहशत ब-उर्यानी करे
सुब्ह के मानिंद ज़ख़्म-ए-दिल गरेबानी करे

जल्वे का तेरे वो आलम है कि गर कीजे ख़याल
दीदा-ए-दिल को ज़ियारत-गाह-ए-हैरानी करे

है शिकस्तन से भी दिल नौमीद या रब कब तलक
आबगीना कोह पर अर्ज़-ए-गिराँ-जानी करे

मय-कदा गर चश्म-ए-मस्त-ए-नाज़ से पावे शिकस्त
मू-ए-शीशा दीदा-ए-साग़र की मिज़्गानी करे

ख़त्त-ए-आरिज़ से लिखा है ज़ुल्फ़ को उल्फ़त ने अहद
यक-क़लम मंज़ूर है जो कुछ परेशानी करे


वो आ के ख़्वाब में तस्कीन-ए-इज़्तिराब तो दे
वले मुझे तपिश-ए-दिल मजाल-ए-ख़्वाब तो दे

करे है क़त्ल लगावट में तेरा रो देना
तिरी तरह कोई तेग़-ए-निगह को आब तो दे

दिखा के जुम्बिश-ए-लब ही तमाम कर हम को
न दे जो बोसा तो मुँह से कहीं जवाब तो दे

पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
पियाला गर नहीं देता न दे शराब तो दे

मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की
क़िस्मत खुली तिरे क़द-ओ-रुख़ से ज़ुहूर की

इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं
पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की

वाइ'ज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तहूर की

लड़ता है मुझ से हश्र में क़ातिल कि क्यूँ उठा
गोया अभी सुनी नहीं आवाज़ सूर की

आमद बहार की है जो बुलबुल है नग़्मा-संज
उड़ती सी इक ख़बर है ज़बानी तुयूर की

गो वाँ नहीं प वाँ के निकाले हुए तो हैं
का'बे से इन बुतों को भी निस्बत है दूर की

क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की

गर्मी सही कलाम में लेकिन न इस क़दर
की जिस से बात उस ने शिकायत ज़रूर की

'ग़ालिब' गर इस सफ़र में मुझे साथ ले चलें
हज का सवाब नज़्र करूँगा हुज़ूर की
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए

सर्फ़-ए-बहा-ए-मय हुए आलात-ए-मय-कशी
थे ये ही दो हिसाब सो यूँ पाक हो गए

रुस्वा-ए-दहर गो हुए आवारगी से तुम
बारे तबीअतों के तो चालाक हो गए

कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बे-असर
पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए

पूछे है क्या वजूद ओ अदम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग के ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए

करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए

इस रंग से उठाई कल उस ने 'असद' की ना'श
दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए
कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में
ये सू-ए-ज़न है साक़ी-ए-कौसर के बाब में

हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद
गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में

जाँ क्यूँ निकलने लगती है तन से दम-ए-समा
गर वो सदा समाई है चंग ओ रबाब में

रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे
ने हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में

उतना ही मुझ को अपनी हक़ीक़त से बोद है
जितना कि वहम-ए-ग़ैर से हूँ पेच-ओ-ताब में

अस्ल-ए-शुहूद-ओ-शाहिद-ओ-मशहूद एक है
हैराँ हूँ फिर मुशाहिदा है किस हिसाब में

है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर
याँ क्या धरा है क़तरा ओ मौज-ओ-हबाब में

शर्म इक अदा-ए-नाज़ है अपने ही से सही
हैं कितने बे-हिजाब कि हैं यूँ हिजाब में

आराइश-ए-जमाल से फ़ारिग़ नहीं हुनूज़
पेश-ए-नज़र है आइना दाइम नक़ाब में

है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद
हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में

'ग़ालिब' नदीम-ए-दोस्त से आती है बू-ए-दोस्त
मश्ग़ूल-ए-हक़ हूँ बंदगी-ए-बू-तराब में
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के

ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये
हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के

ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के

दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के

शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर
देखिए कब दिन फिरें हम्माम के

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
जौर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या
कहते हैं हम तुझ को मुँह दिखलाएँ क्या

रात दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ
हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या

लाग हो तो उस को हम समझें लगाव
जब न हो कुछ भी तो धोका खाएँ क्या

हो लिए क्यूँ नामा-बर के साथ साथ
या रब अपने ख़त को हम पहुँचाएँ क्या

मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र ही क्यूँ न जाए
आस्तान-ए-यार से उठ जाएँ क्या

उम्र भर देखा किया मरने की राह
मर गए पर देखिए दिखलाएँ क्या

पूछते हैं वो कि 'ग़ालिब' कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या
दीवानगी से दोश पे ज़ुन्नार भी नहीं
या'नी हमारे जेब में इक तार भी नहीं

दिल को नियाज़-ए-हसरत-ए-दीदार कर चुके
देखा तो हम में ताक़त-ए-दीदार भी नहीं

मिलना तिरा अगर नहीं आसाँ तो सहल है
दुश्वार तो यही है कि दुश्वार भी नहीं

बे-इश्क़ उम्र कट नहीं सकती है और याँ
ताक़त ब-क़दर-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार भी नहीं

शोरीदगी के हाथ से है सर वबाल-ए-दोश
सहरा में ऐ ख़ुदा कोई दीवार भी नहीं

गुंजाइश-ए-अदावत-ए-अग़्यार यक तरफ़
याँ दिल में ज़ोफ़ से हवस-ए-यार भी नहीं

डर नाला-हा-ए-ज़ार से मेरे ख़ुदा को मान
आख़िर नवा-ए-मुर्ग़-ए-गिरफ़्तार भी नहीं

दिल में है यार की सफ़-ए-मिज़्गाँ से रू-कशी
हालाँकि ताक़त-ए-ख़लिश-ए-ख़ार भी नहीं

इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं

देखा 'असद' को ख़ल्वत-ओ-जल्वत में बार-हा
दीवाना गर नहीं है तो हुश्यार भी नहीं
दिया है दिल अगर उस को बशर है क्या कहिए
हुआ रक़ीब तो हो नामा-बर है क्या कहिए

ये ज़िद कि आज न आवे और आए बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है क्या कहिए

रहे है यूँ गह-ओ-बे-गह कि कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिए कि दुश्मन का घर है क्या कहिए

ज़हे करिश्मा कि यूँ दे रक्खा है हम को फ़रेब
कि बिन कहे ही उन्हें सब ख़बर है क्या कहिए

समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है क्या कहिए

तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़याल
हमारे हाथ में कुछ है मगर है क्या कहिए

उन्हें सवाल पे ज़ोम-ए-जुनूँ है क्यूँ लड़िए
हमें जवाब से क़त-ए-नज़र है क्या कहिए

हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है क्या कीजे
सितम बहा-ए-मता-ए-हुनर है क्या कहिए

कहा है किस ने कि 'ग़ालिब' बुरा नहीं लेकिन
सिवाए इस के कि आशुफ़्ता-सर है क्या कहिए
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर

आतिश-परस्त कहते हैं अहल-ए-जहाँ मुझे
सरगर्म-ए-नाला-हा-ए-शरर-बार देख कर

क्या आबरू-ए-इश्क़ जहाँ आम हो जफ़ा
रुकता हूँ तुम को बे-सबब आज़ार देख कर

आता है मेरे क़त्ल को पर जोश-ए-रश्क से
मरता हूँ उस के हाथ में तलवार देख कर

साबित हुआ है गर्दन-ए-मीना पे ख़ून-ए-ख़ल्क़
लरज़े है मौज-ए-मय तिरी रफ़्तार देख कर

वा-हसरता कि यार ने खींचा सितम से हाथ
हम को हरीस-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार देख कर

बिक जाते हैं हम आप मता-ए-सुख़न के साथ
लेकिन अयार-ए-तबअ-ए-ख़रीदार देख कर

ज़ुन्नार बाँध सुब्हा-ए-सद-दाना तोड़ डाल
रह-रौ चले है राह को हमवार देख कर

इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं
जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर

क्या बद-गुमाँ है मुझ से कि आईने में मिरे
तूती का अक्स समझे है ज़ंगार देख कर

गिरनी थी हम पे बर्क़-ए-तजल्ली न तूर पर
देते हैं बादा ज़र्फ़-ए-क़दह-ख़्वार देख कर

सर फोड़ना वो 'ग़ालिब'-ए-शोरीदा हाल का
याद आ गया मुझे तिरी दीवार देख कर
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किए
बैठा रहा अगरचे इशारे हुआ किए

दिल ही तो है सियासत-ए-दरबाँ से डर गया
मैं और जाऊँ दर से तिरे बिन सदा किए

रखता फिरूँ हूँ ख़िर्क़ा ओ सज्जादा रहन-ए-मय
मुद्दत हुई है दावत आब-ओ-हवा किए

बे-सर्फ़ा ही गुज़रती है हो गरचे उम्र-ए-ख़िज़्र
हज़रत भी कल कहेंगे कि हम क्या किया किए

मक़्दूर हो तो ख़ाक से पूछूँ कि ऐ लईम
तू ने वो गंज-हा-ए-गराँ-माया क्या किए

किस रोज़ तोहमतें न तराशा किए अदू
किस दिन हमारे सर पे न आरे चला किए

सोहबत में ग़ैर की न पड़ी हो कहीं ये ख़ू
देने लगा है बोसा बग़ैर इल्तिजा किए

ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
भूले से उस ने सैकड़ों वा'दे वफ़ा किए

'ग़ालिब' तुम्हीं कहो कि मिलेगा जवाब क्या
माना कि तुम कहा किए और वो सुना किए
ओहदे से मद्ह-ए-नाज़ के बाहर न आ सका
गर इक अदा हो तो उसे अपनी क़ज़ा कहूँ

हल्क़े हैं चश्म-हा-ए-कुशादा ब-सू-ए-दिल
हर तार-ए-ज़ुल्फ़ को निगह-ए-सुर्मा-सा कहूँ

मैं और सद-हज़ार नवा-ए-जिगर-ख़राश
तू और एक वो न-शुनीदन कि क्या कहूँ

ज़ालिम मिरे गुमाँ से मुझे मुन्फ़इल न चाह
है है ख़ुदा-न-कर्दा तुझे बेवफ़ा कहूँ
तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म-ओ-राह हो
मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो

बचते नहीं मुवाख़ज़ा-ए-रोज़-ए-हश्र से
क़ातिल अगर रक़ीब है तो तुम गवाह हो

क्या वो भी बे-गुनह-कुश ओ हक़-ना-शनास हैं
माना कि तुम बशर नहीं ख़ुर्शीद ओ माह हो

उभरा हुआ नक़ाब में है उन के एक तार
मरता हूँ मैं कि ये न किसी की निगाह हो

जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो

सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
लेकिन ख़ुदा करे वो तिरा जल्वा-गाह हो

'ग़ालिब' भी गर न हो तो कुछ ऐसा ज़रर नहीं
दुनिया हो या रब और मिरा बादशाह हो
घर जब बना लिया तिरे दर पर कहे बग़ैर
जानेगा अब भी तू न मिरा घर कहे बग़ैर

कहते हैं जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न
जानूँ किसी के दिल की मैं क्यूँकर कहे बग़ैर

काम उस से आ पड़ा है कि जिस का जहान में
लेवे न कोई नाम सितमगर कहे बग़ैर

जी में ही कुछ नहीं है हमारे वगरना हम
सर जाए या रहे न रहें पर कहे बग़ैर

छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़र कहे बग़ैर

मक़्सद है नाज़-ओ-ग़म्ज़ा वले गुफ़्तुगू में काम
चलता नहीं है दशना-ओ-ख़ंजर कहे बग़ैर

हर चंद हो मुशाहिदा-ए-हक़ की गुफ़्तुगू
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर

बहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात मुकर्रर कहे बग़ैर

'ग़ालिब' न कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर
हुस्न ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बा'द
बारे आराम से हैं अहल-ए-जफ़ा मेरे बा'द

मंसब-ए-शेफ़्तगी के कोई क़ाबिल न रहा
हुई माज़ूली-ए-अंदाज़-ओ-अदा मेरे बा'द

शम्अ' बुझती है तो उस में से धुआँ उठता है
शो'ला-ए-इश्क़ सियह-पोश हुआ मेरे बा'द

ख़ूँ है दिल ख़ाक में अहवाल-ए-बुताँ पर या'नी
उन के नाख़ुन हुए मुहताज-ए-हिना मेरे बा'द

दर-ख़ुर-ए-अर्ज़ नहीं जौहर-ए-बेदाद को जा
निगह-ए-नाज़ है सुरमे से ख़फ़ा मेरे बा'द

है जुनूँ अहल-ए-जुनूँ के लिए आग़ोश-ए-विदा'अ
चाक होता है गरेबाँ से जुदा मेरे बा'द

कौन होता है हरीफ़-ए-मय-ए-मर्द-अफ़गन-ए-इश्क़
है मुकर्रर लब-ए-साक़ी पे सला मेरे बा'द

ग़म से मरता हूँ कि इतना नहीं दुनिया में कोई
कि करे ताज़ियत-ए-मेहर-ओ-वफ़ा मेरे बा'द

आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'
किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बा'द

थी निगह मेरी निहाँ-ख़ाना-ए-दिल की नक़्क़ाब
बे-ख़तर जीते हैं अरबाब-ए-रिया मेरे बा'द

था मैं गुलदस्ता-ए-अहबाब की बंदिश की गियाह
मुतफ़र्रिक़ हुए मेरे रुफ़क़ा मेरे बा'द
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से

ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से

वो बद-ख़ू और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़्तसर क़ासिद भी घबरा जाए है मुझ से

उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है
न पूछा जाए है उस से न बोला जाए है मुझ से

सँभलने दे मुझे ऐ ना-उम्मीदी क्या क़यामत है
कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाए है मुझ से

तकल्लुफ़ बरतरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही लेकिन
वो देखा जाए कब ये ज़ुल्म देखा जाए है मुझ से

हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी
न भागा जाए है मुझ से न ठहरा जाए है मुझ से

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से
दोस्तो, उम्मीद करता हूँ कि आपको मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी पसंद आ रही होगी। ग़ालिब की ग़ज़लें जटिल तो हैं लेकिन उनका कमाल का objervation और introspection ही उन्हें एक महान शायर बनाता है। 
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिए होते

क़हर हो या बला हो जो कुछ हो
काश के तुम मिरे लिए होते

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या-रब कई दिए होते

आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब'
कोई दिन और भी जिए होते
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं

आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं

अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
जो मय ओ नग़्मा को अंदोह-रुबा कहते हैं

दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्सत ग़श से
और फिर कौन से नाले को रसा कहते हैं

है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबला-नुमा कहते हैं

पा-ए-अफ़गार पे जब से तुझे रहम आया है
ख़ार-ए-रह को तिरे हम मेहर-ए-गिया कहते हैं

इक शरर दिल में है उस से कोई घबराएगा क्या
आग मतलूब है हम को जो हवा कहते हैं

देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग
उस की हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं

'वहशत' ओ 'शेफ़्ता' अब मर्सिया कहवें शायद
मर गया 'ग़ालिब'-ए-आशुफ़्ता-नवा कहते हैं
धमकी में मर गया जो न बाब-ए-नबर्द था
इश्क़-ए-नबर्द-पेशा तलबगार-ए-मर्द था

था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेश-तर भी मिरा रंग ज़र्द था

तालीफ़ नुस्ख़ा-हा-ए-वफ़ा कर रहा था मैं
मजमुआ-ए-ख़याल अभी फ़र्द फ़र्द था

दिल ता जिगर कि साहिल-ए-दरिया-ए-ख़ूँ है अब
इस रहगुज़र में जल्वा-ए-गुल आगे गर्द था

जाती है कोई कश्मकश अंदोह-ए-इश्क़ की
दिल भी अगर गया तो वही दिल का दर्द था

अहबाब चारासाज़ी-ए-वहशत न कर सके
ज़िंदाँ में भी ख़याल बयाबाँ-नवर्द था

ये लाश-ए-बे-कफ़न 'असद'-ए-ख़स्ता-जाँ की है
हक़ मग़्फ़िरत करे अजब आज़ाद मर्द था
चाहिए अच्छों को जितना चाहिए
ये अगर चाहें तो फिर क्या चाहिए

सोहबत-ए-रिंदाँ से वाजिब है हज़र
जा-ए-मय अपने को खींचा चाहिए

चाहने को तेरे क्या समझा था दिल
बारे अब इस से भी समझा चाहिए

चाक मत कर जैब बे-अय्याम-ए-गुल
कुछ उधर का भी इशारा चाहिए

दोस्ती का पर्दा है बेगानगी
मुँह छुपाना हम से छोड़ा चाहिए

दुश्मनी ने मेरी खोया ग़ैर को
किस क़दर दुश्मन है देखा चाहिए

अपनी रुस्वाई में क्या चलती है सई
यार ही हंगामा-आरा चाहिए

मुनहसिर मरने पे हो जिस की उमीद
ना-उमीदी उस की देखा चाहिए

ग़ाफ़िल इन मह-तलअ'तों के वास्ते
चाहने वाला भी अच्छा चाहिए

चाहते हैं ख़ूब-रूयों को 'असद'
आप की सूरत तो देखा चाहिए
हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन
वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन

ग़र्रा-ए-औज-ए-बिना-ए-आलम-ए-इमकाँ न हो
इस बुलंदी के नसीबों में है पस्ती एक दिन

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन

नग़्मा-हा-ए-ग़म को भी ऐ दिल ग़नीमत जानिए
बे-सदा हो जाएगा ये साज़-ए-हस्ती एक दिन

धौल-धप्पा उस सरापा-नाज़ का शेवा नहीं
हम ही कर बैठे थे 'ग़ालिब' पेश-दस्ती एक दिन

न गुल-ए-नग़्मा हूँ न पर्दा-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़

तू और आराइश-ए-ख़म-ए-काकुल
मैं और अंदेशा-हा-ए-दूर-दराज़

लाफ़-ए-तमकीं फ़रेब-ए-सादा-दिली
हम हैं और राज़-हा-ए-सीना-गुदाज़

हूँ गिरफ़्तार-ए-उल्फ़त-ए-सय्याद
वर्ना बाक़ी है ताक़त-ए-परवाज़

वो भी दिन हो कि उस सितमगर से
नाज़ खींचूँ बजाए हसरत-ए-नाज़

नहीं दिल में मिरे वो क़तरा-ए-ख़ूँ
जिस से मिज़्गाँ हुई न हो गुल-बाज़

ऐ तिरा ग़म्ज़ा यक-क़लम-अंगेज़
ऐ तिरा ज़ुल्म सर-ब-सर अंदाज़

तू हुआ जल्वा-गर मुबारक हो
रेज़िश-ए-सज्दा-ए-जबीन-ए-नियाज़

मुझ को पूछा तो कुछ ग़ज़ब न हुआ
मैं ग़रीब और तू ग़रीब-नवाज़

'असद'-उल्लाह ख़ाँ तमाम हुआ
ऐ दरेग़ा वो रिंद-ए-शाहिद-बाज़
ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ
बोसे को पूछता हूँ मैं मुँह से मुझे बता कि यूँ

पुर्सिश-ए-तर्ज़-ए-दिलबरी कीजिए क्या कि बिन कहे
उस के हर एक इशारे से निकले है ये अदा कि यूँ

रात के वक़्त मय पिए साथ रक़ीब को लिए
आए वो याँ ख़ुदा करे पर न करे ख़ुदा कि यूँ

ग़ैर से रात क्या बनी ये जो कहा तो देखिए
सामने आन बैठना और ये देखना कि यूँ

बज़्म में उस के रू-ब-रू क्यूँ न ख़मोश बैठिए
उस की तो ख़ामुशी में भी है यही मुद्दआ कि यूँ

मैं ने कहा कि बज़्म-ए-नाज़ चाहिए ग़ैर से तही
सुन के सितम-ज़रीफ़ ने मुझ को उठा दिया कि यूँ

मुझ से कहा जो यार ने जाते हैं होश किस तरह
देख के मेरी बे-ख़ुदी चलने लगी हवा कि यूँ

कब मुझे कू-ए-यार में रहने की वज़्अ याद थी
आइना-दार बन गई हैरत-ए-नक़्श-ए-पा कि यूँ

गर तिरे दिल में हो ख़याल वस्ल में शौक़ का ज़वाल
मौज मुहीत-ए-आब में मारे है दस्त-ओ-पा कि यूँ

जो ये कहे कि रेख़्ता क्यूँके हो रश्क-ए-फ़ारसी
गुफ़्ता-ए-'ग़ालिब' एक बार पढ़ के उसे सुना कि यूँ
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहाँ और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही

ख़ार ख़ार-ए-अलम-ए-हसरत-ए-दीदार तो है
शौक़ गुल-चीन-ए-गुलिस्तान-ए-तसल्ली न सही

मय-परस्ताँ ख़ुम-ए-मय मुँह से लगाए ही बने
एक दिन गर न हुआ बज़्म में साक़ी न सही

नफ़स-ए-क़ैस कि है चश्म-ओ-चराग़-ए-सहरा
गर नहीं शम-ए-सियह-ख़ाना-ए-लैली न सही

एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़
नौहा-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही

न सताइश की तमन्ना न सिले की पर्वा
गर नहीं हैं मिरे अशआ'र में मा'नी न सही

इशरत-ए-सोहबत-ए-ख़ूबाँ ही ग़नीमत समझो
न हुई 'ग़ालिब' अगर उम्र-ए-तबीई न सही

हवस को है नशात-ए-कार क्या क्या
न हो मरना तो जीने का मज़ा क्या

तजाहुल-पेशगी से मुद्दआ क्या
कहाँ तक ऐ सरापा नाज़ क्या क्या

नवाज़िश-हा-ए-बेजा देखता हूँ
शिकायत-हा-ए-रंगीं का गिला क्या

निगाह-ए-बे-महाबा चाहता हूँ
तग़ाफ़ुल-हा-ए-तमकीं-आज़मा क्या

फ़रोग़-ए-शोला-ए-ख़स यक-नफ़स है
हवस को पास-ए-नामूस-ए-वफ़ा क्या

नफ़स मौज-ए-मुहीत-ए-बे-ख़ुदी है
तग़ाफ़ुल-हा-ए-साक़ी का गिला क्या

दिमाग़-ए-इत्र-ए-पैराहन नहीं है
ग़म-ए-आवारगी-हा-ए-सबा क्या

दिल-ए-हर-क़तरा है साज़-ए-अनल-बहर
हम उस के हैं हमारा पूछना क्या

मुहाबा क्या है मैं ज़ामिन इधर देख
शहीदान-ए-निगह का ख़ूँ-बहा क्या

सुन ऐ ग़ारत-गर-ए-जिंस-ए-वफ़ा सुन
शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की सदा क्या

किया किस ने जिगर-दारी का दावा
शकीब-ए-ख़ातिर-ए-आशिक़ भला क्या

ये क़ातिल वादा-ए-सब्र-आज़मा क्यूँ
ये काफ़िर फ़ित्ना-ए-ताक़त-रुबा क्या

बला-ए-जाँ है 'ग़ालिब' उस की हर बात
इबारत क्या इशारत क्या अदा क्या
मस्जिद के ज़ेर-ए-साया ख़राबात चाहिए
भौं पास आँख क़िबला-ए-हाजात चाहिए

आशिक़ हुए हैं आप भी एक और शख़्स पर
आख़िर सितम की कुछ तो मुकाफ़ात चाहिए

दे दाद ऐ फ़लक दिल-ए-हसरत-परस्त की
हाँ कुछ न कुछ तलाफ़ी-ए-माफ़ात चाहिए

सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
तक़रीब कुछ तो बहर-ए-मुलाक़ात चाहिए

मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए

नश्व-ओ-नुमा है अस्ल से 'ग़ालिब' फ़ुरूअ' को
ख़ामोशी ही से निकले है जो बात चाहिए

है रंग-ए-लाला-ओ-गुल-ओ-नसरीं जुदा जुदा
हर रंग में बहार का इसबात चाहिए

सर पा-ए-ख़ुम पे चाहिए हंगाम-ए-बे-ख़ुदी
रू सू-ए-क़िबला वक़्त-ए-मुनाजात चाहिए

या'नी ब-हस्ब-ए-गर्दिश-ए-पैमान-ए-सिफ़ात
आरिफ़ हमेशा मस्त-ए-मय-ए-ज़ात चाहिए
गई वो बात कि हो गुफ़्तुगू तो क्यूँकर हो
कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यूँकर हो

हमारे ज़ेहन में उस फ़िक्र का है नाम विसाल
कि गर न हो तो कहाँ जाएँ हो तो क्यूँकर हो

अदब है और यही कश्मकश तो क्या कीजे
हया है और यही गू-मगू तो क्यूँकर हो

तुम्हीं कहो कि गुज़ारा सनम-परस्तों का
बुतों की हो अगर ऐसी ही ख़ू तो क्यूँकर हो

उलझते हो तुम अगर देखते हो आईना
जो तुम से शहर में हों एक दो तो क्यूँकर हो

जिसे नसीब हो रोज़-ए-सियाह मेरा सा
वो शख़्स दिन न कहे रात को तो क्यूँकर हो

हमें फिर उन से उमीद और उन्हें हमारी क़द्र
हमारी बात ही पूछें न वो तो क्यूँकर हो

ग़लत न था हमें ख़त पर गुमाँ तसल्ली का
न माने दीदा-ए-दीदार जो तो क्यूँकर हो

बताओ उस मिज़ा को देख कर कि मुझ को क़रार
वो नीश हो रग-ए-जाँ में फ़रो तो क्यूँकर हो

मुझे जुनूँ नहीं 'ग़ालिब' वले ब-क़ौल-ए-हुज़ूर
फ़िराक़-ए-यार में तस्कीन हो तो क्यूँकर हो
मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की
क़िस्मत खुली तिरे क़द-ओ-रुख़ से ज़ुहूर की

इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं
पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की

वाइ'ज़ न तुम पियो न किसी को पिला सको
क्या बात है तुम्हारी शराब-ए-तहूर की

लड़ता है मुझ से हश्र में क़ातिल कि क्यूँ उठा
गोया अभी सुनी नहीं आवाज़ सूर की

आमद बहार की है जो बुलबुल है नग़्मा-संज
उड़ती सी इक ख़बर है ज़बानी तुयूर की

गो वाँ नहीं प वाँ के निकाले हुए तो हैं
का'बे से इन बुतों को भी निस्बत है दूर की

क्या फ़र्ज़ है कि सब को मिले एक सा जवाब
आओ न हम भी सैर करें कोह-ए-तूर की

गर्मी सही कलाम में लेकिन न इस क़दर
की जिस से बात उस ने शिकायत ज़रूर की

'ग़ालिब' गर इस सफ़र में मुझे साथ ले चलें
हज का सवाब नज़्र करूँगा हुज़ूर की
दर-ख़ुर-ए-क़हर-ओ-ग़ज़ब जब कोई हम सा न हुआ
फिर ग़लत क्या है कि हम सा कोई पैदा न हुआ

बंदगी में भी वो आज़ादा ओ ख़ुद-बीं हैं कि हम
उल्टे फिर आए दर-ए-का'बा अगर वा न हुआ

सब को मक़्बूल है दा'वा तिरी यकताई का
रू-ब-रू कोई बुत-ए-आइना-सीमा न हुआ

कम नहीं नाज़िश-ए-हमनामी-ए-चश्म-ए-ख़ूबाँ
तेरा बीमार बुरा क्या है गर अच्छा न हुआ

सीने का दाग़ है वो नाला कि लब तक न गया
ख़ाक का रिज़्क़ है वो क़तरा कि दरिया न हुआ

नाम का मेरे है जो दुख कि किसी को न मिला
काम में मेरे है जो फ़ित्ना कि बरपा न हुआ

हर-बुन-ए-मू से दम-ए-ज़िक्र न टपके ख़ूँ नाब
हमज़ा का क़िस्सा हुआ इश्क़ का चर्चा न हुआ

क़तरा में दजला दिखाई न दे और जुज़्व में कुल
खेल लड़कों का हुआ दीदा-ए-बीना न हुआ

थी ख़बर गर्म कि 'ग़ालिब' के उड़ेंगे पुर्ज़े
देखने हम भी गए थे प तमाशा न हुआ
फ़रियाद की कोई लय नहीं है
नाला पाबंद-ए-नय नहीं है

क्यूँ बोते हैं बाग़बान तोंबे
गर बाग़ गदा-ए-मय नहीं है

हर-चंद हर एक शय में तू है
पर तुझ सी कोई शय नहीं है

हाँ खाइयो मत फ़रेब-ए-हस्ती
हर-चंद कहें कि है नहीं है

शादी से गुज़र कि ग़म न होवे
उरदी जो न हो तो दय नहीं है

क्यूँ रद्द-ए-क़दह करे है ज़ाहिद
मय है ये मगस की क़य नहीं है

हस्ती है न कुछ अदम है 'ग़ालिब'
आख़िर तू क्या है ऐ नहीं है
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
वो इक गुलदस्ता है हम बे-ख़ुदों के ताक़-ए-निस्याँ का

बयाँ क्या कीजिए बेदाद-ए-काविश-हा-ए-मिज़गाँ का
कि हर यक क़तरा-ए-ख़ूँ दाना है तस्बीह-ए-मरजाँ का

न आई सतवत-ए-क़ातिल भी माने मेरे नालों को
लिया दाँतों में जो तिनका हुआ रेशा नियस्ताँ का

दिखाऊँगा तमाशा दी अगर फ़ुर्सत ज़माने ने
मिरा हर दाग़-ए-दिल इक तुख़्म है सर्व-ए-चराग़ाँ का

किया आईना-ख़ाने का वो नक़्शा तेरे जल्वे ने
करे जो परतव-ए-ख़ुर्शीद आलम शबनमिस्ताँ का

मिरी ता'मीर में मुज़्मर है इक सूरत ख़राबी की
हयूला बर्क़-ए-ख़िर्मन का है ख़ून-ए-गर्म दहक़ाँ का

उगा है घर में हर सू सब्ज़ा वीरानी तमाशा कर
मदार अब खोदने पर घास के है मेरे दरबाँ का

ख़मोशी में निहाँ ख़ूँ-गश्ता लाखों आरज़ूएँ हैं
चराग़-ए-मुर्दा हूँ मैं बे-ज़बाँ गोर-ए-ग़रीबाँ का

हनूज़ इक परतव-ए-नक़्श-ए-ख़याल-ए-यार बाक़ी है
दिल-ए-अफ़सुर्दा गोया हुजरा है यूसुफ़ के ज़िंदाँ का

बग़ल में ग़ैर की आज आप सोते हैं कहीं वर्ना
सबब क्या ख़्वाब में आ कर तबस्सुम-हा-ए-पिन्हाँ का

नहीं मा'लूम किस किस का लहू पानी हुआ होगा
क़यामत है सरिश्क-आलूदा होना तेरी मिज़्गाँ का

नज़र में है हमारी जादा-ए-राह-ए-फ़ना 'ग़ालिब'
कि ये शीराज़ा है आलम के अज्ज़ा-ए-परेशाँ का
देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है

हाथ धो दिल से यही गर्मी गर अंदेशे में है
आबगीना तुन्दि-ए-सहबा से पिघला जाए है

ग़ैर को या रब वो क्यूँकर मन-ए-गुस्ताख़ी करे
गर हया भी उस को आती है तो शरमा जाए है

शौक़ को ये लत कि हर दम नाला खींचे जाइए
दिल की वो हालत कि दम लेने से घबरा जाए है

दूर चश्म-ए-बद तिरी बज़्म-ए-तरब से वाह वाह
नग़्मा हो जाता है वाँ गर नाला मेरा जाए है

गरचे है तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल पर्दा-दार-ए-राज़-ए-इश्क़
पर हम ऐसे खोए जाते हैं कि वो पा जाए है

उस की बज़्म-आराइयाँ सुन कर दिल-ए-रंजूर याँ
मिस्ल-ए-नक़्श-ए-मुद्दआ-ए-ग़ैर बैठा जाए है

हो के आशिक़ वो परी-रुख़ और नाज़ुक बन गया
रंग खुलता जाए है जितना कि उड़ता जाए है

नक़्श को उस के मुसव्विर पर भी क्या क्या नाज़ हैं
खींचता है जिस क़दर उतना ही खिंचता जाए है

साया मेरा मुझ से मिस्ल-ए-दूद भागे है 'असद'
पास मुझ आतिश-ब-जाँ के किस से ठहरा जाए है
ग़म खाने में बूदा दिल-ए-नाकाम बहुत है
ये रंज कि कम है मय-ए-गुलफ़ाम बहुत है

कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना
है यूँ कि मुझे दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत है

ने तीर कमाँ में है न सय्याद कमीं में
गोशे में क़फ़स के मुझे आराम बहुत है

क्या ज़ोहद को मानूँ कि न हो गरचे रियाई
पादाश-ए-अमल की तमा-ए-ख़ाम बहुत है

हैं अहल-ए-ख़िरद किस रविश-ए-ख़ास पे नाज़ाँ
पाबस्तगी-ए-रस्म-ओ-राह-ए-आम बहुत है

ज़मज़म ही पे छोड़ो मुझे क्या तौफ़-ए-हरम से
आलूदा-ब-मय जामा-ए-एहराम बहुत है

है क़हर गर अब भी न बने बात कि उन को
इंकार नहीं और मुझे इबराम बहुत है

ख़ूँ हो के जिगर आँख से टपका नहीं ऐ मर्ग
रहने दे मुझे याँ कि अभी काम बहुत है

होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को न जाने
शाइ'र तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है
कब वो सुनता है कहानी मेरी
और फिर वो भी ज़बानी मेरी

ख़लिश-ए-ग़म्ज़ा-ए-ख़ूँ-रेज़ न पूछ
देख ख़ूँनाबा-फ़िशानी मेरी

क्या बयाँ कर के मिरा रोएँगे यार
मगर आशुफ़्ता-बयानी मेरी

हूँ ज़-ख़ुद रफ़्ता-ए-बैदा-ए-ख़याल
भूल जाना है निशानी मेरी

मुतक़ाबिल है मुक़ाबिल मेरा
रुक गया देख रवानी मेरी

क़द्र-ए-संग-ए-सर-ए-रह रखता हूँ
सख़्त अर्ज़ां है गिरानी मेरी

गर्द-बाद-ए-रह-ए-बेताबी हूँ
सरसर-ए-शौक़ है बानी मेरी

दहन उस का जो न मालूम हुआ
खुल गई हेच मदानी मेरी

कर दिया ज़ोफ़ ने आजिज़ 'ग़ालिब'
नंग-ए-पीरी है जवानी मेरी
ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
फ़लक का देखना तक़रीब तेरे याद आने की

खुलेगा किस तरह मज़मूँ मिरे मक्तूब का या-रब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की

लिपटना पर्नियाँ में शोला-ए-आतिश का पिन्हाँ है
वले मुश्किल है हिकमत दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की

उन्हें मंज़ूर अपने ज़ख़्मियों का देख आना था
उठे थे सैर-ए-गुल को देखना शोख़ी बहाने की

हमारी सादगी थी इल्तिफ़ात-ए-नाज़ पर मरना
तिरा आना न था ज़ालिम मगर तम्हीद जाने की

लकद कूब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती
मिरी ताक़त कि ज़ामिन थी बुतों की नाज़ उठाने की
वारस्ता उस से हैं कि मोहब्बत ही क्यूँ न हो
कीजे हमारे साथ अदावत ही क्यूँ न हो

छोड़ा न मुझ में ज़ोफ़ ने रंग इख़्तिलात का
है दिल पे बार नक़्श-ए-मोहब्बत ही क्यूँ न हो

है मुझ को तुझ से तज़्किरा-ए-ग़ैर का गिला
हर-चंद बर-सबील-ए-शिकायत ही क्यूँ न हो

पैदा हुई है कहते हैं हर दर्द की दवा
यूँ हो तो चारा-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ही क्यूँ न हो

डाला न बे-कसी ने किसी से मुआ'मला
अपने से खींचता हूँ ख़जालत ही क्यूँ न हो

है आदमी बजाए ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
हम अंजुमन समझते हैं ख़ल्वत ही क्यूँ न हो

हंगामा-ए-ज़बूनी-ए-हिम्मत है इंफ़िआल
हासिल न कीजे दहर से इबरत ही क्यूँ न हो

वारस्तगी बहाना-ए-बेगानगी नहीं
अपने से कर न ग़ैर से वहशत ही क्यूँ न हो

मिटता है फ़ौत-ए-फ़ुर्सत-ए-हस्ती का ग़म कोई
उम्र-ए-अज़ीज़ सर्फ़-ए-इबादत ही क्यूँ न हो

उस फ़ित्ना-ख़ू के दर से अब उठते नहीं 'असद'
उस में हमारे सर पे क़यामत ही क्यूँ न हो
नवेद-ए-अम्न है बेदाद-ए-दोस्त जाँ के लिए
रही न तर्ज़-ए-सितम कोई आसमाँ के लिए

बला से गर मिज़ा-ए-यार तिश्ना-ए-ख़ूँ है
रखूँ कुछ अपनी भी मिज़्गान-ए-ख़ूँ फ़िशाँ के लिए

वो ज़िंदा हम हैं कि हैं रू-शनास-ए-ख़ल्क़ ऐ ख़िज़्र
न तुम कि चोर बने उम्र-ए-जावेदाँ के लिए

रहा बला में भी मैं मुब्तला-ए-आफ़त-ए-रश्क
बला-ए-जाँ है अदा तेरी इक जहाँ के लिए

फ़लक न दूर रख उस से मुझे कि मैं ही नहीं
दराज़-दस्ती-ए-क़ातिल के इम्तिहाँ के लिए

मिसाल ये मिरी कोशिश की है कि मुर्ग़-ए-असीर
करे क़फ़स में फ़राहम ख़स आशियाँ के लिए

गदा समझ के वो चुप था मिरी जो शामत आई
उठा और उठ के क़दम मैं ने पासबाँ के लिए

ब-क़द्र-ए-शौक़ नहीं ज़र्फ़-ए-तंगना-ए-ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअत मिरे बयाँ के लिए

दिया है ख़ल्क़ को भी ता उसे नज़र न लगे
बना है ऐश तजम्मुल हुसैन ख़ाँ के लिए

ज़बाँ पे बार-ए-ख़ुदाया ये किस का नाम आया
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मिरी ज़बाँ के लिए

नसीर-ए-दौलत-ओ-दीं और मुईन-ए-मिल्लत-ओ-मुल्क
बना है चर्ख़-ए-बरीं जिस के आस्ताँ के लिए

ज़माना अहद में उस के है महव-ए-आराइश
बनेंगे और सितारे अब आसमाँ के लिए

वरक़ तमाम हुआ और मद्ह बाक़ी है
सफ़ीना चाहिए इस बहर-ए-बेकराँ के लिए

अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
सला-ए-आम है यारान-ए-नुक्ता-दाँ के लिए
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
जाँ कालबद-ए-सूरत-ए-दीवार में आवे

साए की तरह साथ फिरें सर्व ओ सनोबर
तू इस क़द-ए-दिलकश से जो गुलज़ार में आवे

तब नाज़-ए-गिराँ माइगी-ए-अश्क बजा है
जब लख़्त-ए-जिगर दीदा-ए-ख़ूँ-बार में आवे

दे मुझ को शिकायत की इजाज़त कि सितमगर
कुछ तुझ को मज़ा भी मिरे आज़ार में आवे

उस चश्म-ए-फ़ुसूँ-गर का अगर पाए इशारा
तूती की तरह आइना गुफ़्तार में आवे

काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब
इक आबला-पा वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे

मर जाऊँ न क्यूँ रश्क से जब वो तन-ए-नाज़ुक
आग़ोश-ए-ख़म-ए-हल्क़ा-ए-ज़ुन्नार में आवे

ग़ारत-गर-ए-नामूस न हो गर हवस-ए-ज़र
क्यूँ शाहिद-ए-गुल बाग़ से बाज़ार में आवे

तब चाक-ए-गरेबाँ का मज़ा है दिल-ए-नालाँ
जब इक नफ़स उलझा हुआ हर तार में आवे

आतिश-कदा है सीना मिरा राज़-ए-निहाँ से
ऐ वाए अगर मा'रिज़-ए-इज़हार में आवे

गंजीना-ए-मअ'नी का तिलिस्म उस को समझिए
जो लफ़्ज़ कि 'ग़ालिब' मिरे अशआ'र में आवे
बज़्म-ए-शाहंशाह में अशआ'र का दफ़्तर खुला
रखियो या रब ये दर-ए-गंजीना-ए-गौहर खुला

शब हुई फिर अंजुम-ए-रख़्शन्दा का मंज़र खुला
इस तकल्लुफ़ से कि गोया बुत-कदे का दर खुला

गरचे हूँ दीवाना पर क्यूँ दोस्त का खाऊँ फ़रेब
आस्तीं में दशना पिन्हाँ हाथ में नश्तर खुला

गो न समझूँ उस की बातें गो न पाऊँ उस का भेद
पर ये क्या कम है कि मुझ से वो परी-पैकर खुला

है ख़याल-ए-हुस्न में हुस्न-ए-अमल का सा ख़याल
ख़ुल्द का इक दर है मेरी गोर के अंदर खुला

मुँह न खुलने पर है वो आलम कि देखा ही नहीं
ज़ुल्फ़ से बढ़ कर नक़ाब उस शोख़ के मुँह पर खुला

दर पे रहने को कहा और कह के कैसा फिर गया
जितने अर्से में मिरा लिपटा हुआ बिस्तर खुला

क्यूँ अँधेरी है शब-ए-ग़म है बलाओं का नुज़ूल
आज उधर ही को रहेगा दीदा-ए-अख़्तर खुला

क्या रहूँ ग़ुर्बत में ख़ुश जब हो हवादिस का ये हाल
नामा लाता है वतन से नामा-बर अक्सर खुला

उस की उम्मत में हूँ मैं मेरे रहें क्यूँ काम बंद
वास्ते जिस शह के 'ग़ालिब' गुम्बद-ए-बे-दर खुला
याद है शादी में भी हंगामा-ए-या-रब मुझे
सुब्हा-ए-ज़ाहिद हुआ है ख़ंदा ज़ेर-ए-लब मुझे

है कुशाद-ए-ख़ातिर-ए-वा-बस्ता दर रहन-ए-सुख़न
था तिलिस्म-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद ख़ाना-ए-मकतब मुझे

या रब इस आशुफ़्तगी की दाद किस से चाहिए
रश्क आसाइश पे है ज़िंदानियों की अब मुझे

तब्अ' है मुश्ताक़-ए-लज़्ज़त-हा-ए-हसरत क्या करूँ
आरज़ू से है शिकस्त-ए-आरज़ू मतलब मुझे

दिल लगा कर आप भी 'ग़ालिब' मुझी से हो गए
इश्क़ से आते थे माने मीरज़ा साहब मुझे
तो ये थीं मिर्ज़ा ग़ालिब की 50 चुनिंदा ग़ज़लें। उम्मीद करता हूँ कि आपको मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी पसंद आई होगी।

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