जो शायरी के बेहद शौक़ीन होते हैं वो अक्सर ग़ज़लों के साथ साथ नज़्में भी पढ़ते हैं। लेकिन कुछ लोग ग़ज़ल और नज़्म में अंतर समझ नहीं पाते। बहुत से लोग तो ग़ज़ल पढ़ रहे होते हैं और उन्हें लगता है कि ये नज़्म और इसका ठीक उल्टा भी होता है। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि नज़्म की कुछ सिन्फ़ें ग़ज़ल के structure से मेल खाती हैं और ग़ज़ल जैसी ही लगती हैं। ख़ैर, अभी उतना detail में जाने की ज़रुरत नहीं है। आइए, हम दोनों को एक एक करके पढ़ते हैं और वो उदाहरण के साथ। शरुआत ग़ज़ल से करते हैं।
ग़ज़ल क्या है ?
एक ग़ज़ल में क़ाफ़िया, रदीफ़, और एक बह्र (meter) होता है। ध्यान रखें रदीफ़ का होना अनिवार्य नहीं है और ऐसी ग़ज़लें जिनमें रदीफ़ नहीं होतीं उन्हें ग़ैर-मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं।
ग़ज़ल का शीर्षक नहीं होता। ग़ज़ल में शे'र होते हैं जो दो मिसरों से बनते हैं और हर शे'र अपने आप में मा'नी (meaning) के नज़रिए से पूर्ण होता है। यानी अपनी बात 2 मिसरों में पूरी करनी होती है। इस वजह से इसका शीर्षक रखना संभव नहीं। हालाँकि कुछ मुसलसल ग़ज़लें होती हैं जैसे - माँ पर ग़ज़ल, मुल्क पर ग़ज़ल, आदि जो एक ही विषय पर कही जाती हैं लेकिन फिर भी ग़ज़ल का शीर्षक नहीं होता।
इसमें कम से कम 3-4 शे'र होने ही चाहिए।
ध्यान रखें कि पूरी ग़ज़ल यानी हर मिसरा एक ही बह्र या मीटर पर होती है। आइए इसको मैंने अपनी एक ग़ज़ल के चंद अश'आर से समझाता हूँ।
सामने उनके सर झुकाएँ हम
वो हैं तूफ़ान और हवाएँ हम
तन्हा रातों में अश्क बहते रहे
तुमको देते रहे सदाएँ हम
दे दिया आपको क़फ़स बना के
अब परिंदा कहाँ से लाएँ हम
इक शिगूफ़ा दिखा था रास्ते में
क्यों हवा को ये सब बताएँ हम (- अच्युतम यादव 'अबतर')
देखिए, ये चारों अश'आर 2122 1212 22 बह्र पर हैं। जहाँ मात्रा गिराने की छूट है वहाँ आवश्यकता अनुसार गिराई भी है।
इसी प्रकार से बाक़ी के अश'आर भी हैं।
नज़्म क्या है ?
नज़्म का शाब्दिक अर्थ है "मोती पिरोना।" नज़्म एक कविता की ही तरह होती है जो कि शुरुआत से अंत तक एक ही विषय पर बात करती है।
इसमें क़ाफ़िया या रदीफ़ का होना अनिवार्य नहीं है पर इसमें शीर्षक का होना ज़रूरी है। नज़्म में एक रवानी का होना भी अनिवार्य है। आपके ख़याल एक लय में आगे बढ़ रहे हों और शीर्षक से जुड़े हुए हों तो फिर वो नज़्म कहलाएगी।
नज़्म में थोड़ी आज़ादी रहती है क्योंकि इसमें आप या तो पूरी नज़्म एक ही बह्र पर कह सकते हैं या फिर अलग अलग मिसरों में निर्धारित बह्र के अर्कान कम-ज़ियादा करके अपने ख्याल बन सकते हैं। मैं अपनी ही एक नज़्म उदाहरण के तौर पर दे रहा हूँ -
एक वीरान मंज़िल
तुम मुझे मंज़िल समझते हो किसी कीक्यों नहीं फिर देखते हो
एक मुद्दत से मेरे दिल पे जमी धूल
इक भी नक्श-ए-पा नहीं जिसपे किसी के
आश्ना है जो फ़क़त तन्हाई से ही
एक पगडंडी सी शायद
जिसपे चलना भी हो ज़हमत
जाती है जो एक सदमे की वबा तक
सर-ब-सर गुम है वजूद उसका जहाँ पे
और फिर भी
तुम मुझे मंज़िल समझते हो किसी की
क्यों समझते हो तुम ऐसा? ( अच्युतम यादव 'अबतर' )
नज़्म के भी प्रकार होते हैं (बाद में देखेंगे) और ये आज़ाद नज़्म है जो मैंने कही है 2122 2122 2122 बह्र पर और अलग अलग मिसरों में अर्कान कम-ज़ियादा किए हैं। जैसे -
तुम मुझे मंज़िल समझते हो किसी की
( 2122 2122 2122 )
क्यों नहीं फिर देखते हो
( 2122 2122 )
एक मुद्दत से मेरे दिल पे जमी धूल
( 2122 2122 2122 +1 )
इसी तरह आप बाक़ी मिसरों की भी तक़्तीअ कर लीजिएगा।
तो दोस्तो, उम्मीद करता हूँ कि आपको अब ग़ज़ल और नज़्म में अंतर करना आसानी से समझ आ गया होगा। मुझे भी ये सब साझा करने में बहुत ख़ुशी हुई। अगर आपको मेरा काम पसंद आए तो आप मेरी चंद ग़ज़लें ज़रूर पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया भी दें।
धन्यवाद।
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