ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सज्दे में रहती है
- मुनव्वर राना
दोस्तो कहते हैं कि माँ का क़र्ज़ कभी अदा नहीं किया जा सकता जो कि सही भी है और मुनव्वर राना साहब का यह शे'र भी हमें इसी बात को याद दिलाता है। हम तो सिर्फ़ अपना-अपना फ़र्ज़ अदा कर सकते हैं माँ के लिए ताकि उन्हें एक बेहतर ज़िंदगी दे सकें।
मैं इसका शुक्रगुज़ार हूँ कि मुझे कई तरीकों में एक शायरी का माध्यम भी मिला है जिससे मैं अपनी माँ का शुक्रियादा कर सकूँ। आज मैं आप सभी से माँ पर एक ग़ज़ल साझा करने जा रहा हूँ। उम्मीद करता हूँ आप सभी को मेरी ये कोशिश पसंद आए।
यह “माँ पर ग़ज़ल” सिर्फ़ एक ग़ज़ल नहीं है, यह उन अनकहे जज़्बात की आवाज़ है जिन्हें शब्दों में ढालना आसान नहीं होता। अगर आपने कभी maa ki yaad mein shayari ढूँढी है, या फिर कोई emotional maa shayari पढ़कर दिल भर आया हो, तो यह ग़ज़ल आपके लिए है।
माँ पर एक ग़ज़ल
मुझको तय्यब का राही बनाती है माँ
और जन्नत का रस्ता बताती है माँ
उसके साए से भी मैं लिपट जाता हूँ
जब कभी भी दिए को जलाती है माँ
याद आती थी माँ जितना कल तक मुझे
आज भी उतना ही याद आती है माँ
मौत जब भी कभी ढूँढ़ने आती है
अपने काजल से मुझ को छुपाती है माँ
'अच्युतम' शहर में जा के क्यों बस गया
तेरे ख़त आँसुओं से मिटाती है माँ
- अच्युतम यादव 'अबतर'
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