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2212 2212 2212 बह्र पर ग़ज़ल और तक़्तीअ

 
2212 2212 2212 बह्र पर ग़ज़ल

2212 2212 2212 बह्र पर ग़ज़ल

साँसों की इस खिड़की पे तू पर्दा न कर
मैं मर ही जाऊँगा मुझे तन्हा न कर

सुनता रहा तेरी हर इक-इक मोड़ पर
ऐ मेरे दिल अब कोई और नख़रा न कर

आँखों को ख़ू है सहरा जैसा रहने का
बस इतनी रहमत कर इन्हें दरिया न कर

केवल सदाक़त बोलना ही सीखा है
आहिस्ता मेरे लहजे पे हमला न कर

ये ख़्वाहिशें पौधे हैं ख़ुशियों की मियाँ
इनको किसी के वास्ते रौंदा न कर

ये चाँदनी आँखों को भाती है बहुत
मेरे ख़ुदा इस चाँद पे पर्दा न कर 

 - अच्युतम यादव 'अबतर'

ख़ू : आदत 
सदाक़त : सच

ग़ज़ल की तक़्तीअ 

नोट : जहाँ कहीं भी मात्रा गिराई गई है वहाँ underline करके दर्शाया गया है।  

साँसों की इस।  खिड़की पे तू / पर्दा न कर
2212 / 2212 / 2212

मैं मर ही जा / ऊँगा मुझे / तन्हा न कर
2212 / 2212 / 2212 


सुनता रहा / तेरी हर इक- / इक मोड़ पर
2212 / 2212 / 2212
(अलिफ़ वस्ल --> हर + इक = हरिक 12)

ऐ मेरे दिल / अब कोऔर / नख़रा न कर
2212 / 2212 / 2212
('और' को 21 या सिर्फ़ 2 भी ले सकते हैं।)


आँखों को ख़ू / है सहरा जै / सा रहने का
2212 / 2212 / 2212

बस इतनी रह / मत कर इन्हें / दरिया न कर
2212 / 2212 / 2212 


केवल सदा / क़त बोलना / ही सीखा है
2212 / 2212 / 2212

आहिस्ता मे / रे लहजे पे / हमला न कर
2212 / 2212 / 2212 


ये ख़्वाहिशें / पौधे  हैं  ख़ुशि / यों की मियाँ
2212 / 2212 / 2212

इनको किसी / के वास्ते / रौंदा न कर
2212 / 2212 / 2212 


ये चाँदनी / आँखों को भा / ती है बहुत
2212 / 2212 / 2212

मेरे ख़ुदा / इस चाँद पे / पर्दा न कर 
2212 / 2212 / 2212 

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