1212 1212 1212 1212 बह्र पर ग़ज़ल
मुझे पता नहीं मिरा ज़मीर कितने दर गया
कोई बताए क्यों मैं अपनी बातों से मुकर गया
मैं खो गया था ऊँची सी हवेलियों की चाह में
कि खोजने मुझे मिरा ही घर हज़ारों घर गया
वो अश्म बावला था, नासमझ था और सनकी भी
सुना है ठोकरों के इंतज़ार में ही मर गया
किसी की आँधियों से कोई दुश्मनी नहीं है पर
हवाओं का बदलता लहजा जो भी देखा डर गया
बग़ीचे सी ज़ुबाँ पे एक गुल सा लहजा बोया था
रुकी जहाँ से बातें, उसके आगे तक असर गया
चढ़ी है जब से मेरे माथे पर वो क़र्ज़ की ख़िज़ाँ
यूँ लगता है कि कोई पत्ता होठों से उतर गया
- Achyutam Yadav 'Abtar'
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