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122 122 122 122 बह्र पर ग़ज़ल

122 122 122 122 बह्र पर ग़ज़ल

122 122 122 122 बह्र पर ग़ज़ल 


जो मिलती नहीं है वही माँगते हैं
मुसलसल तवज्जोह सभी माँगते हैं


वफ़ा मेरी वो जब कभी माँगते हैं
हक़ीक़त में चारागरी माँगते हैं


भला कैसे चमकेगा मेरा सितारा
यहाँ तो सभी चाँद ही माँगते हैं


किसी और के पास रक्खा है कब से
वही हक़ जो हम आज भी माँगते हैं


हर इक चुप्पी पे चोट करते हैं पत्थर
ज़हानत से हम दुश्मनी माँगते है


नहीं हैं समुंदर का इक क़तरा भी, और
वो तोहफ़े में हमसे नदी माँगते हैं


परेशाँ हैं इक दूजे से मिसरे ‘अबतर’
ग़ज़ल मुझसे अब वो नई माँगते हैं


 - Achyutam Yadav 'Abtar'


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