Dagh Dehlvi Shayari Collection

दाग़ देहलवी उर्दू शायरी के वो चमकते सितारे हैं जिनकी शायरी में मोहब्बत की नज़ाकत और तहज़ीब की मिठास घुली हुई है। उनके लफ़्ज़ों में नफ़ासत भी है और दिल छू लेने वाली सादगी भी। इश्क़ को जिस शालीनता और अदा से उन्होंने बयान किया, वो आज भी उर्दू अदब की पहचान है। 

Dagh Dehlvi Shayari Collection उन तमाम एहसासात का ख़ज़ाना है, जिसमें आशिक़ की तड़प, हिज्र की कसक और वफ़ा की बातें दिल को छू जाती हैं। दाग़ देहलवी की शायरी सिर्फ़ शायरी ही नहीं, एक ज़माने की तहज़ीब का आईना है — ऐसा आईना जो हर दौर में चमकता रहेगा। तो आइए, पहले हम दाग़ साहब की ग़ज़लें देखते हैं।  


दाग़ देहलवी की ग़ज़लें 

1
ग़ज़ब किया तिरे वा'दे पे ए'तिबार किया
तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया

किसी तरह जो न उस बुत ने ए'तिबार किया
मिरी वफ़ा ने मुझे ख़ूब शर्मसार किया

हँसा हँसा के शब-ए-वस्ल अश्क-बार किया
तसल्लियाँ मुझे दे दे के बे-क़रार किया

ये किस ने जल्वा हमारे सर-ए-मज़ार किया
कि दिल से शोर उठा हाए बे-क़रार किया

सुना है तेग़ को क़ातिल ने आब-दार किया
अगर ये सच है तो बे-शुब्ह हम पे वार किया

न आए राह पे वो इज्ज़ बे-शुमार किया
शब-ए-विसाल भी मैं ने तो इंतिज़ार किया

तुझे तो वादा-ए-दीदार हम से करना था
ये क्या किया कि जहाँ को उमीद-वार किया

ये दिल को ताब कहाँ है कि हो मआल-अंदेश
उन्हों ने वा'दा किया इस ने ए'तिबार किया

कहाँ का सब्र कि दम पर है बन गई ज़ालिम
ब तंग आए तो हाल-ए-दिल आश्कार किया

तड़प फिर ऐ दिल-ए-नादाँ कि ग़ैर कहते हैं
अख़ीर कुछ न बनी सब्र इख़्तियार किया

मिले जो यार की शोख़ी से उस की बेचैनी
तमाम रात दिल-ए-मुज़्तरिब को प्यार किया

भुला भुला के जताया है उन को राज़-ए-निहाँ
छुपा छुपा के मोहब्बत को आश्कार किया

न उस के दिल से मिटाया कि साफ़ हो जाता
सबा ने ख़ाक परेशाँ मिरा ग़ुबार किया

हम ऐसे महव-ए-नज़ारा न थे जो होश आता
मगर तुम्हारे तग़ाफ़ुल ने होश्यार किया

हमारे सीने में जो रह गई थी आतिश-ए-हिज्र
शब-ए-विसाल भी उस को न हम-कनार किया

रक़ीब ओ शेवा-ए-उल्फ़त ख़ुदा की क़ुदरत है
वो और इश्क़ भला तुम ने ए'तिबार किया

ज़बान-ए-ख़ार से निकली सदा-ए-बिस्मिल्लाह
जुनूँ को जब सर-ए-शोरीदा पर सवार किया

तिरी निगह के तसव्वुर में हम ने ऐ क़ातिल
लगा लगा के गले से छुरी को प्यार किया

ग़ज़ब थी कसरत-ए-महफ़िल कि मैं ने धोके में
हज़ार बार रक़ीबों को हम-कनार किया

हुआ है कोई मगर उस का चाहने वाला
कि आसमाँ ने तिरा शेवा इख़्तियार किया

न पूछ दिल की हक़ीक़त मगर ये कहते हैं
वो बे-क़रार रहे जिस ने बे-क़रार किया

जब उन को तर्ज़-ए-सितम आ गए तो होश आया
बुरा हो दिल का बुरे वक़्त होश्यार किया

फ़साना-ए-शब-ए-ग़म उन को इक कहानी थी
कुछ ए'तिबार किया कुछ न ए'तिबार किया

असीरी दिल-ए-आशुफ़्ता रंग ला के रही
तमाम तुर्रा-ए-तर्रार तार तार किया

कुछ आ गई दावर-ए-महशर से है उम्मीद मुझे
कुछ आप ने मिरे कहने का ए'तिबार किया

किसी के इश्क़-ए-निहाँ में ये बद-गुमानी थी
कि डरते डरते ख़ुदा पर भी आश्कार किया

फ़लक से तौर क़यामत के बन न पड़ते थे
अख़ीर अब तुझे आशोब-ए-रोज़गार किया

वो बात कर जो कभी आसमाँ से हो न सके
सितम किया तो बड़ा तू ने इफ़्तिख़ार किया

बनेगा मेहर-ए-क़यामत भी एक ख़ाल-ए-सियाह
जो चेहरा 'दाग़'-ए-सियह-रू ने आश्कार किया
– दाग़ देहलवी
2
उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं

मुंतज़िर हैं दम-ए-रुख़्सत कि ये मर जाए तो जाएँ
फिर ये एहसान कि हम छोड़ के जाते भी नहीं

सर उठाओ तो सही आँख मिलाओ तो सही
नश्शा-ए-मय भी नहीं नींद के माते भी नहीं

क्या कहा फिर तो कहो हम नहीं सुनते तेरी
नहीं सुनते तो हम ऐसों को सुनाते भी नहीं

ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

मुझ से लाग़र तिरी आँखों में खटकते तो रहे
तुझ से नाज़ुक मिरी नज़रों में समाते भी नहीं

देखते ही मुझे महफ़िल में ये इरशाद हुआ
कौन बैठा है उसे लोग उठाते भी नहीं

हो चुका क़त्अ तअ'ल्लुक़ तो जफ़ाएँ क्यूँ हों
जिन को मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं

ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं
– दाग़ देहलवी
3
आप का ए'तिबार कौन करे
रोज़ का इंतिज़ार कौन करे

ज़िक्र-ए-मेहर-ओ-वफ़ा तो हम करते
पर तुम्हें शर्मसार कौन करे

हो जो उस चश्म-ए-मस्त से बे-ख़ुद
फिर उसे होशियार कौन करे

तुम तो हो जान इक ज़माने की
जान तुम पर निसार कौन करे

आफ़त-ए-रोज़गार जब तुम हो
शिकवा-ए-रोज़गार कौन करे

अपनी तस्बीह रहने दे ज़ाहिद
दाना दाना शुमार कौन करे

हिज्र में ज़हर खा के मर जाऊँ
मौत का इंतिज़ार कौन करे

आँख है तुर्क ज़ुल्फ़ है सय्याद
देखें दिल का शिकार कौन करे

वा'दा करते नहीं ये कहते हैं
तुझ को उम्मीद-वार कौन करे

'दाग़' की शक्ल देख कर बोले
ऐसी सूरत को प्यार कौन करे
– दाग़ देहलवी
4
फिरे राह से वो यहाँ आते आते
अजल मर रही तू कहाँ आते आते

न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बहुत देर की मेहरबाँ आते आते

सुना है कि आता है सर नामा-बर का
कहाँ रह गया अरमुग़ाँ आते आते

यक़ीं है कि हो जाए आख़िर को सच्ची
मिरे मुँह में तेरी ज़बाँ आते आते

सुनाने के क़ाबिल जो थी बात उन को
वही रह गई दरमियाँ आते आते

मुझे याद करने से ये मुद्दआ था
निकल जाए दम हिचकियाँ आते आते

अभी सिन ही क्या है जो बेबाकियाँ हों
उन्हें आएँगी शोख़ियाँ आते आते

कलेजा मिरे मुँह को आएगा इक दिन
यूँही लब पर आह-ओ-फ़ुग़ाँ आते आते

चले आते हैं दिल में अरमान लाखों
मकाँ भर गया मेहमाँ आते आते

नतीजा न निकला थके सब पयामी
वहाँ जाते जाते यहाँ आते आते

तुम्हारा ही मुश्ताक़-ए-दीदार होगा
गया जान से इक जवाँ आते आते

तिरी आँख फिरते ही कैसा फिरा है
मिरी राह पर आसमाँ आते आते

पड़ा है बड़ा पेच फिर दिल-लगी में
तबीअत रुकी है जहाँ आते आते

मिरे आशियाँ के तो थे चार तिनके
चमन उड़ गया आँधियाँ आते आते

किसी ने कुछ उन को उभारा तो होता
न आते न आते यहाँ आते आते

क़यामत भी आती थी हमराह उस के
मगर रह गई हम-इनाँ आते आते

बना है हमेशा ये दिल बाग़ ओ सहरा
बहार आते आते ख़िज़ाँ आते आते

नहीं खेल ऐ 'दाग़' यारों से कह दो
कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते
– दाग़ देहलवी
5
ले चला जान मिरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा

अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना जो पता एक ने जाना तेरा

तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परेशान रहा करती है
किस के उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा

आरज़ू ही न रही सुब्ह-ए-वतन की मुझ को
शाम-ए-ग़ुर्बत है अजब वक़्त सुहाना तेरा

ये समझ कर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है
काम आता है बुरे वक़्त में आना तेरा

ऐ दिल-ए-शेफ़्ता में आग लगाने वाले
रंग लाया है ये लाखे का जमाना तेरा

तू ख़ुदा तो नहीं ऐ नासेह-ए-नादाँ मेरा
क्या ख़ता की जो कहा मैं ने न माना तेरा

रंज क्या वस्ल-ए-अदू का जो तअ'ल्लुक़ ही नहीं
मुझ को वल्लाह हँसाता है रुलाना तेरा

काबा ओ दैर में या चश्म-ओ-दिल-ए-आशिक़ में
इन्हीं दो-चार घरों में है ठिकाना तेरा

तर्क-ए-आदत से मुझे नींद नहीं आने की
कहीं नीचा न हो ऐ गोर सिरहाना तेरा

मैं जो कहता हूँ उठाए हैं बहुत रंज-ए-फ़िराक़
वो ये कहते हैं बड़ा दिल है तवाना तेरा

बज़्म-ए-दुश्मन से तुझे कौन उठा सकता है
इक क़यामत का उठाना है उठाना तेरा

अपनी आँखों में अभी कौंद गई बिजली सी
हम न समझे कि ये आना है कि जाना तेरा

यूँ तो क्या आएगा तू फ़र्त-ए-नज़ाकत से यहाँ
सख़्त दुश्वार है धोके में भी आना तेरा

'दाग़' को यूँ वो मिटाते हैं ये फ़रमाते हैं
तू बदल डाल हुआ नाम पुराना तेरा
– दाग़ देहलवी
6
ना-रवा कहिए ना-सज़ा कहिए
कहिए कहिए मुझे बुरा कहिए

तुझ को बद-अहद ओ बेवफ़ा कहिए
ऐसे झूटे को और क्या कहिए

दर्द दिल का न कहिए या कहिए
जब वो पूछे मिज़ाज क्या कहिए

फिर न रुकिए जो मुद्दआ कहिए
एक के बा'द दूसरा कहिए

आप अब मेरा मुँह न खुलवाएँ
ये न कहिए कि मुद्दआ कहिए

वो मुझे क़त्ल कर के कहते हैं
मानता ही न था ये क्या कहिए

दिल में रखने की बात है ग़म-ए-इश्क़
इस को हरगिज़ न बरमला कहिए

तुझ को अच्छा कहा है किस किस ने
कहने वालों को और क्या कहिए

वो भी सुन लेंगे ये कभी न कभी
हाल-ए-दिल सब से जा-ब-जा कहिए

मुझ को कहिए बुरा न ग़ैर के साथ
जो हो कहना जुदा जुदा कहिए

इंतिहा इश्क़ की ख़ुदा जाने
दम-ए-आख़िर को इब्तिदा कहिए

मेरे मतलब से क्या ग़रज़ मतलब
आप अपना तो मुद्दआ कहिए

ऐसी कश्ती का डूबना अच्छा
कि जो दुश्मन को नाख़ुदा कहिए

सब्र फ़ुर्क़त में आ ही जाता है
पर उसे देर-आश्ना कहिए

आ गई आप को मसीहाई
मरने वालों को मर्हबा कहिए

आप का ख़ैर-ख़्वाह मेरे सिवा
है कोई और दूसरा कहिए

हाथ रख कर वो अपने कानों पर
मुझ से कहते हैं माजरा कहिए

होश जाते रहे रक़ीबों के
'दाग़' को और बा-वफ़ा कहिए
– दाग़ देहलवी
7
ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूटी क़सम से आप का ईमान तो गया

दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें हुईं एहसान तो गया

डरता हूँ देख कर दिल-ए-बे-आरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यूँ न हो मेहमान तो गया

क्या आए राहत आई जो कुंज-ए-मज़ार में
वो वलवला वो शौक़ वो अरमान तो गया

देखा है बुत-कदे में जो ऐ शैख़ कुछ न पूछ
ईमान की तो ये है कि ईमान तो गया

इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
लेकिन उसे जता तो दिया जान तो गया

गो नामा-बर से ख़ुश न हुआ पर हज़ार शुक्र
मुझ को वो मेरे नाम से पहचान तो गया

बज़्म-ए-अदू में सूरत-ए-परवाना दिल मिरा
गो रश्क से जला तिरे क़ुर्बान तो गया

होश ओ हवास ओ ताब ओ तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया
– दाग़ देहलवी
8
सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं

तेवर तिरे ऐ रश्क-ए-क़मर देख रहे हैं
हम शाम से आसार-ए-सहर देख रहे हैं

मेरा दिल-ए-गुम-गश्ता जो ढूँडा नहीं मिलता
वो अपना दहन अपनी कमर देख रहे हैं

कोई तो निकल आएगा सरबाज़-ए-मोहब्बत
दिल देख रहे हैं वो जिगर देख रहे हैं

है मजमा-ए-अग़्यार कि हंगामा-ए-महशर
क्या सैर मिरे दीदा-ए-तर देख रहे हैं

अब ऐ निगह-ए-शौक़ न रह जाए तमन्ना
इस वक़्त उधर से वो इधर देख रहे हैं

हर-चंद कि हर रोज़ की रंजिश है क़यामत
हम कोई दिन उस को भी मगर देख रहे हैं

आमद है किसी की कि गया कोई इधर से
क्यूँ सब तरफ़-ए-राहगुज़र देख रहे हैं

तकरार तजल्ली ने तिरे जल्वे में क्यूँ की
हैरत-ज़दा सब अहल-ए-नज़र देख रहे हैं

नैरंग है एक एक तिरा दीद के क़ाबिल
हम ऐ फ़लक-ए-शोबदा-गर देख रहे हैं

कब तक है तुम्हारा सुख़न-ए-तल्ख़ गवारा
इस ज़हर में कितना है असर देख रहे हैं

कुछ देख रहे हैं दिल-ए-बिस्मिल का तड़पना
कुछ ग़ौर से क़ातिल का हुनर देख रहे हैं

अब तक तो जो क़िस्मत ने दिखाया वही देखा
आइंदा हो क्या नफ़ा ओ ज़रर देख रहे हैं

पहले तो सुना करते थे आशिक़ की मुसीबत
अब आँख से वो आठ पहर देख रहे हैं

क्यूँ कुफ़्र है दीदार-ए-सनम हज़रत-ए-वाइज़
अल्लाह दिखाता है बशर देख रहे हैं

ख़त ग़ैर का पढ़ते थे जो टोका तो वो बोले
अख़बार का परचा है ख़बर देख रहे हैं

पढ़ पढ़ के वो दम करते हैं कुछ हाथ पर अपने
हँस हँस के मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर देख रहे हैं

मैं 'दाग़' हूँ मरता हूँ इधर देखिए मुझ को
मुँह फेर के ये आप किधर देख रहे हैं
– दाग़ देहलवी
9
बात मेरी कभी सुनी ही नहीं
जानते वो बुरी भली ही नहीं

दिल-लगी उन की दिल-लगी ही नहीं
रंज भी है फ़क़त हँसी ही नहीं

लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं

उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं

जान क्या दूँ कि जानता हूँ मैं
तुम ने ये चीज़ ले के दी ही नहीं

हम तो दुश्मन को दोस्त कर लेते
पर करें क्या तिरी ख़ुशी ही नहीं

हम तिरी आरज़ू पे जीते हैं
ये नहीं है तो ज़िंदगी ही नहीं

दिल-लगी दिल-लगी नहीं नासेह
तेरे दिल को अभी लगी ही नहीं

'दाग़' क्यूँ तुम को बेवफ़ा कहता
वो शिकायत का आदमी ही नहीं
– दाग़ देहलवी
10
आरज़ू है वफ़ा करे कोई
जी न चाहे तो क्या करे कोई

गर मरज़ हो दवा करे कोई
मरने वाले का क्या करे कोई

कोसते हैं जले हुए क्या क्या
अपने हक़ में दुआ करे कोई

उन से सब अपनी अपनी कहते हैं
मेरा मतलब अदा करे कोई

चाह से आप को तो नफ़रत है
मुझ को चाहे ख़ुदा करे कोई

उस गिले को गिला नहीं कहते
गर मज़े का गिला करे कोई

ये मिली दाद रंज-ए-फ़ुर्क़त की
और दिल का कहा करे कोई

तुम सरापा हो सूरत-ए-तस्वीर
तुम से फिर बात क्या करे कोई

कहते हैं हम नहीं ख़ुदा-ए-करीम
क्यूँ हमारी ख़ता करे कोई

जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई

इस जफ़ा पर तुम्हें तमन्ना है
कि मिरी इल्तिजा करे कोई

मुँह लगाते ही 'दाग़' इतराया
लुत्फ़ है फिर जफ़ा करे कोई
– दाग़ देहलवी
11
अच्छी सूरत पे ग़ज़ब टूट के आना दिल का
याद आता है हमें हाए ज़माना दिल का

तुम भी मुँह चूम लो बे-साख़्ता प्यार आ जाए
मैं सुनाऊँ जो कभी दिल से फ़साना दिल का

निगह-ए-यार ने की ख़ाना-ख़राबी ऐसी
न ठिकाना है जिगर का न ठिकाना दिल का

पूरी मेहंदी भी लगानी नहीं आती अब तक
क्यूँकर आया तुझे ग़ैरों से लगाना दिल का

ग़ुंचा-ए-गुल को वो मुट्ठी में लिए आते थे
मैं ने पूछा तो किया मुझ से बहाना दिल का

इन हसीनों का लड़कपन ही रहे या अल्लाह
होश आता है तो आता है सताना दिल का

दे ख़ुदा और जगह सीना ओ पहलू के सिवा
कि बुरे वक़्त में हो जाए ठिकाना दिल का

मेरी आग़ोश से क्या ही वो तड़प कर निकले
उन का जाना था इलाही कि ये जाना दिल का

निगह-ए-शर्म को बे-ताब किया काम किया
रंग लाया तिरी आँखों में समाना दिल का

उँगलियाँ तार-ए-गरेबाँ में उलझ जाती हैं
सख़्त दुश्वार है हाथों से दबाना दिल का

हूर की शक्ल हो तुम नूर के पुतले हो तुम
और इस पर तुम्हें आता है जलाना दिल का

छोड़ कर उस को तिरी बज़्म से क्यूँकर जाऊँ
इक जनाज़े का उठाना है उठाना दिल का

बे-दिली का जो कहा हाल तो फ़रमाते हैं
कर लिया तू ने कहीं और ठिकाना दिल का

बा'द मुद्दत के ये ऐ 'दाग़' समझ में आया
वही दाना है कहा जिस ने न माना दिल का
– दाग़ देहलवी
12
इस नहीं का कोई इलाज नहीं
रोज़ कहते हैं आप आज नहीं

कल जो था आज वो मिज़ाज नहीं
इस तलव्वुन का कुछ इलाज नहीं

आइना देखते ही इतराए
फिर ये क्या है अगर मिज़ाज नहीं

ले के दिल रख लो काम आएगा
गो अभी तुम को एहतियाज नहीं

हो सकें हम मिज़ाज-दाँ क्यूँकर
हम को मिलता तिरा मिज़ाज नहीं

चुप लगी लाल-ए-जाँ-फ़ज़ा को तिरे
इस मसीहा का कुछ इलाज नहीं

दिल-ए-बे-मुद्दआ ख़ुदा ने दिया
अब किसी शय की एहतियाज नहीं

खोटे दामों में ये भी क्या ठहरा
दिरहम-ए-'दाग़' का रिवाज नहीं

बे-नियाज़ी की शान कहती है
बंदगी की कुछ एहतियाज नहीं

दिल-लगी कीजिए रक़ीबों से
इस तरह का मिरा मिज़ाज नहीं

इश्क़ है पादशाह-ए-आलम-गीर
गरचे ज़ाहिर में तख़्त-ओ-ताज नहीं

दर्द-ए-फ़ुर्क़त की गो दवा है विसाल
इस के क़ाबिल भी हर मिज़ाज नहीं

यास ने क्या बुझा दिया दिल को
कि तड़प कैसी इख़्तिलाज नहीं

हम तो सीरत-पसंद आशिक़ हैं
ख़ूब-रू क्या जो ख़ुश-मिज़ाज नहीं

हूर से पूछता हूँ जन्नत में
इस जगह क्या बुतों का राज नहीं

सब्र भी दिल को 'दाग़' दे लेंगे
अभी कुछ इस की एहतियाज नहीं
– दाग़ देहलवी
13
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
तुझे हर बहाने से हम देखते हैं

हमारी तरफ़ अब वो कम देखते हैं
वो नज़रें नहीं जिन को हम देखते हैं

ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं
हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं

फिरे बुत-कदे से तो ऐ अहल-ए-काबा
फिर आ कर तुम्हारे क़दम देखते हैं

हमें चश्म-ए-बीना दिखाती है सब कुछ
वो अंधे हैं जो जाम-ए-जम देखते हैं

न ईमा-ए-ख़्वाहिश न इज़हार-ए-मतलब
मिरे मुँह को अहल-ए-करम देखते हैं

कभी तोड़ते हैं वो ख़ंजर को अपने
कभी नब्ज़-ए-बिस्मिल में दम देखते हैं

ग़नीमत है चश्म-ए-तग़ाफ़ुल भी उन की
बहुत देखते हैं जो कम देखते हैं

ग़रज़ क्या कि समझें मिरे ख़त का मज़मूँ
वो उनवान ओ तर्ज़-ए-रक़म देखते हैं

सलामत रहे दिल बुरा है कि अच्छा
हज़ारों में ये एक दम देखते हैं

रहा कौन महफ़िल में अब आने वाला
वो चारों तरफ़ दम-ब-दम देखते हैं

उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने
न वो देखते हैं न हम देखते हैं

उन्हें क्यूँ न हो दिलरुबाई से नफ़रत
कि हर दिल में वो ग़म अलम देखते हैं

निगहबाँ से भी क्या हुई बद-गुमानी
अब उस को तिरे साथ कम देखते हैं

हमें 'दाग़' क्या कम है ये सरफ़राज़ी
कि शाह-ए-दकन के क़दम देखते हैं
– दाग़ देहलवी
14
दिल गया तुम ने लिया हम क्या करें
जाने वाली चीज़ का ग़म क्या करें

हम ने मर कर हिज्र में पाई शिफ़ा
ऐसे अच्छों का वो मातम क्या करें

अपने ही ग़म से नहीं मिलती नजात
इस बिना पर फ़िक्र-ए-आलम क्या करें

एक साग़र पर है अपनी ज़िंदगी
रफ़्ता रफ़्ता इस से भी कम क्या करें

कर चुके सब अपनी अपनी हिकमतें
दम निकलता हो तो हमदम क्या करें

दिल ने सीखा शेवा-ए-बेगानगी
ऐसे ना-महरम को महरम क्या करें

मा'रका है आज हुस्न ओ इश्क़ का
देखिए वो क्या करें हम क्या करें

आईना है और वो हैं देखिए
फ़ैसला दोनों ये बाहम क्या करें

आदमी होना बहुत दुश्वार है
फिर फ़रिश्ते हिर्स-ए-आदम क्या करें

तुंद-ख़ू है कब सुने वो दिल की बात
और भी बरहम को बरहम क्या करें

हैदराबाद और लंगर याद है
अब के दिल्ली में मोहर्रम क्या करें

कहते हैं अहल-ए-सिफ़ारिश मुझ से 'दाग़'
तेरी क़िस्मत है बुरी हम क्या करें
– दाग़ देहलवी
तो ये थीं दाग़ देहलवी की कुछ ग़ज़लें। लेकिन जब बात आती है दाग़ देहलवी की शायरी की तो वो बिना उनके तन्हा अश'आर के अधूरी है। तो चलिए, अब हम उनके कुछ अश'आर भी पढ़ते हैं।

दाग़ देहलवी के चुनिंदा अश'आर 

हज़ारों काम मोहब्बत में हैं मज़े के 'दाग़'
जो लोग कुछ नहीं करते कमाल करते हैं
– दाग़ देहलवी
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
मिरी जाँ चाहने वाला बड़ी मुश्किल से मिलता है
– दाग़ देहलवी
सब लोग जिधर वो हैं उधर देख रहे हैं
हम देखने वालों की नज़र देख रहे हैं
– दाग़ देहलवी
आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
बंदगी से ख़ुदा नहीं मिलता
– दाग़ देहलवी
जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई
– दाग़ देहलवी
दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नहीं
उल्टी शिकायतें हुईं एहसान तो गया
– दाग़ देहलवी
ईमान की तो ये है कि ईमान अब कहाँ
काफ़िर बना गई तिरी काफ़िर-नज़र मुझे
– दाग़ देहलवी
क्या क्या फ़रेब दिल को दिए इज़्तिराब में
उन की तरफ़ से आप लिखे ख़त जवाब में
– दाग़ देहलवी
ये तो कहिए इस ख़ता की क्या सज़ा
मैं जो कह दूँ आप पर मरता हूँ मैं
– दाग़ देहलवी
क्या सुनाते हो कि है हिज्र में जीना मुश्किल
तुम से बरहम पे मरने से तो आसाँ होगा
– दाग़ देहलवी
कोई नाम-ओ-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस 'दाग़' है वो आशिक़ों के दिल में रहते हैं
– दाग़ देहलवी
तुम्हारा दिल मिरे दिल के बराबर हो नहीं सकता
वो शीशा हो नहीं सकता ये पत्थर हो नहीं सकता
– दाग़ देहलवी
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