Jigar Moradabadi Shayari Collection

जिगर मुरादाबादी उर्दू शायरी के वो नाम हैं जिनकी शायरी दिल की गहराइयों से निकलकर सीधे रूह को छू जाती है। इश्क़, जज़्बात, और इंसानियत को उन्होंने जिस अंदाज़ में लफ़्ज़ों में पिरोया, वह उन्हें भीड़ से अलग बनाता है। जिगर की शायरी में दर्द, मोहब्बत और जज़्बात का अनोखा संगम है, और ये पोस्ट "Jigar Moradabadi shayari collection" इसका बेहतरीन प्रमाण है। 

वे मुरादाबाद की मिट्टी से निकले वो शायर थे जिन्होंने उर्दू अदब को एक नई नज़ाकत दी। उनके अल्फ़ाज़ आज भी महफ़िलों में गूंजते हैं, और दिलों में बसते हैं। तो चलिए अब हम जिगर मुरादाबादी की शायरी देखते हैं।


जिगर मुरादाबादी की ग़ज़लें

क्या बराबर का मोहब्बत में असर होता है
दिल इधर होता है ज़ालिम न उधर होता है

हम ने क्या कुछ न किया दीदा-ए-दिल की ख़ातिर
लोग कहते हैं दुआओं में असर होता है

दिल तो यूँ दिल से मिलाया कि न रक्खा मेरा
अब नज़र के लिए क्या हुक्म-ए-नज़र होता है

मैं गुनहगार-ए-जुनूँ मैं ने ये माना लेकिन
कुछ उधर से भी तक़ाज़ा-ए-नज़र होता है

कौन देखे उसे बेताब-ए-मोहब्बत ऐ दिल
तू वो नाले ही न कर जिन में असर होता है
– जिगर मुरादाबादी
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उस की नज़रों में इंतिख़ाब हुआ
दिल अजब हुस्न से ख़राब हुआ

इश्क़ का सेहर कामयाब हुआ
मैं तिरा तू मिरा जवाब हुआ

हर नफ़स मौज-ए-इज़्तिराब हुआ
ज़िंदगी क्या हुई अज़ाब हुआ

जज़्बा-ए-शौक़ कामयाब हुआ
आज मुझ से उन्हें हिजाब हुआ

मैं बनूँ किस लिए न मस्त-ए-शराब
क्यूँ मुजस्सम कोई शबाब हुआ

निगह-ए-नाज़ ले ख़बर वर्ना
दर्द महबूब-ए-इज़्तिराब हुआ

मेरी बर्बादियाँ दुरुस्त मगर
तू बता क्या तुझे सवाब हुआ

ऐन क़ुर्बत भी ऐन फ़ुर्क़त भी
हाए वो क़तरा जो हबाब हुआ

मस्तियाँ हर तरफ़ हैं आवारा
कौन ग़ारत-गर-ए-शराब हुआ

दिल को छूना न ऐ नसीम-ए-करम
अब ये दिल रू-कश-ए-हबाब हुआ

इश्क़-ए-बे-इम्तियाज़ के हाथों
हुस्न ख़ुद भी शिकस्त-याब हुआ

जब वो आए तो पेश-तर सब से
मेरी आँखों को इज़्न-ए-ख़्वाब हुआ

दिल की हर चीज़ जगमगा उट्ठी
आज शायद वो बे-नक़ाब हुआ

दौर-ए-हंगामा-ए-नशात न पूछ
अब वो सब कुछ ख़याल ओ ख़्वाब हुआ

तू ने जिस अश्क पर नज़र डाली
जोश खा कर वही शराब हुआ

सितम-ए-ख़ास-ए-यार की है क़सम
करम-ए-यार बे-हिसाब हुआ
– जिगर मुरादाबादी
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निगाहों का मरकज़ बना जा रहा हूँ
मोहब्बत के हाथों लुटा जा रहा हूँ

मैं क़तरा हूँ लेकिन ब-आग़ोश-ए-दरिया
अज़ल से अबद तक बहा जा रहा हूँ

मुबारक मुबारक मिरी ये फ़नाएँ
दो-आलम पे छाया चला जा रहा हूँ

वही हुस्न जिस के हैं ये सब मज़ाहिर
उसी हुस्न में हल हुआ जा रहा हूँ

ये किस की तरफ़ से ये किस की तरफ़ को
मैं हम-दोश मौज-ए-फ़ना जा रहा हूँ

न जाने कहाँ से न जाने किधर को
बस इक अपनी धुन में उड़ा जा रहा हूँ

मुझे रोक सकता हो कोई तो रोके
कि छुप कर नहीं बरमला जा रहा हूँ

मेरे पास आओ ये क्या सामने हूँ
मिरी सम्त देखो ये क्या जा रहा हूँ

निगाहों में मंज़िल मिरी फिर रही है
यूँही गिरता पड़ता चला जा रहा हूँ

तिरी मस्त नज़रें ग़ज़ब ढा रही हैं
ये आलम है जैसे उड़ा जा रहा हूँ

किधर है तू ऐ ग़ैरत-ए-हुस्न ख़ुद में
मोहब्बत के हाथों बिका जा रहा हूँ

न औराक-ए-हस्ती न अहसास-ए-मस्ती
जिधर चल पड़ा हूँ चला जा रहा हूँ

न सूरत न मा'नी न पैदा न पिन्हाँ
ये किस हुस्न में गुम हुआ जा रहा हूँ
– जिगर मुरादाबादी
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दिल को मिटा के दाग़-ए-तमन्ना दिया मुझे
ऐ इश्क़ तेरी ख़ैर हो ये क्या दिया मुझे

महशर में बात भी न ज़बाँ से निकल सकी
क्या झुक के उस निगाह ने समझा दिया मुझे

मैं और आरज़ू-ए-विसाल-ए-परी-रुख़ाँ
इस इश्क़-ए-सादा-लौह ने बहका दिया मुझे

हर बार यास हिज्र में दिल की हुई शरीक
हर मर्तबा उमीद ने धोका दिया मुझे

अल्लाह रे तेग़-ए-इश्क़ की बरहम-मज़ाहियाँ
मेरे ही ख़ून-ए-शौक़ में नहला दिया मुझे

ख़ुश हूँ कि हुस्न-ए-यार ने ख़ुद अपने हाथ से
इक दिल-फ़रेब दाग़-ए-तमन्ना दिया मुझे

दुनिया से खो चुका है मिरा जोश-ए-इंतिज़ार
आवाज़-ए-पाए-ए-यार ने चौंका दिया मुझे

दा'वा किया था ज़ब्त-ए-मोहब्बत का ऐ 'जिगर'
ज़ालिम ने बात बात पे तड़पा दिया मुझे
– जिगर मुरादाबादी
5
शब-ए-वस्ल क्या मुख़्तसर हो गई
ज़रा आँख झपकी सहर हो गई

निगाहों ने सब राज़-ए-दिल कह दिया
उन्हें आज अपनी ख़बर हो गई

बड़ी चीज़ है तर्ज़-ए-बेगानगी
ये तरकीब अगर कारगर हो गई

इलाही बुरा हो ग़म-ए-इश्क़ का
सुना है कि उन को ख़बर हो गई

किए मुझ पे एहसाँ ग़म-ए-यार ने
हमेशा को नीची नज़र हो गई

नुमायाँ हुई सुब्ह-ए-पीरी 'जिगर'
बस अब दास्ताँ मुख़्तसर हो गई
– जिगर मुरादाबादी
6
दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं

दुनिया-ए-दिल तबाह किए जा रहा हूँ मैं
सर्फ़-ए-निगाह-ओ-आह किए जा रहा हूँ मैं

फ़र्द-ए-अमल सियाह किए जा रहा हूँ मैं
रहमत को बे-पनाह किए जा रहा हूँ मैं

ऐसी भी इक निगाह किए जा रहा हूँ मैं
ज़र्रों को मेहर-ओ-माह किए जा रहा हूँ मैं

मुझ से लगे हैं इश्क़ की अज़्मत को चार चाँद
ख़ुद हुस्न को गवाह किए जा रहा हूँ मैं

दफ़्तर है एक मानी-ए-बे-लफ़्ज़-ओ-सौत का
सादा सी जो निगाह किए जा रहा हूँ मैं

आगे क़दम बढ़ाएँ जिन्हें सूझता नहीं
रौशन चराग़-ए-राह किए जा रहा हूँ मैं

मासूमी-ए-जमाल को भी जिन पे रश्क है
ऐसे भी कुछ गुनाह किए जा रहा हूँ मैं

तन्क़ीद-ए-हुस्न मस्लहत-ए-ख़ास-ए-इश्क़ है
ये जुर्म गाह गाह किए जा रहा हूँ मैं

उठती नहीं है आँख मगर उस के रू-ब-रू
नादीदा इक निगाह किए जा रहा हूँ मैं

गुलशन-परस्त हूँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किए जा रहा हूँ मैं

यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं

मुझ से अदा हुआ है 'जिगर' जुस्तुजू का हक़
हर ज़र्रे को गवाह किए जा रहा हूँ मैं
– जिगर मुरादाबादी
7
शाएर-ए-फ़ितरत हूँ जब भी फ़िक्र फ़रमाता हूँ मैं
रूह बन कर ज़र्रे ज़र्रे में समा जाता हूँ मैं

आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त घबराता हूँ मैं
जैसे हर शय में किसी शय की कमी पाता हूँ मैं

जिस क़दर अफ़्साना-ए-हस्ती को दोहराता हूँ मैं
और भी बे-गाना-ए-हस्ती हुआ जाता हूँ मैं

जब मकान-ओ-ला-मकाँ सब से गुज़र जाता हूँ मैं
अल्लाह अल्लाह तुझ को ख़ुद अपनी जगह पाता हूँ मैं

तेरी सूरत का जो आईना उसे पाता हूँ मैं
अपने दिल पर आप क्या क्या नाज़ फ़रमाता हूँ मैं

यक-ब-यक घबरा के जितनी दूर हट आता हूँ मैं
और भी उस शोख़ को नज़दीक-तर पाता हूँ मैं

मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम मेरी फ़ितरत इज़्तिराब
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं

हाए-री मजबूरियाँ तर्क-ए-मोहब्बत के लिए
मुझ को समझाते हैं वो और उन को समझाता हूँ मैं

मेरी हिम्मत देखना मेरी तबीअत देखना
जो सुलझ जाती है गुत्थी फिर से उलझाता हूँ मैं

हुस्न को क्या दुश्मनी है इश्क़ को क्या बैर है
अपने ही क़दमों की ख़ुद ही ठोकरें खाता हूँ मैं

तेरी महफ़िल तेरे जल्वे फिर तक़ाज़ा क्या ज़रूर
ले उठा जाता हूँ ज़ालिम ले चला जाता हूँ मैं

ता-कुजा ये पर्दा-दारी-हा-ए-इश्क़-ओ-लाफ़-ए-हुस्न
हाँ सँभल जाएँ दो-आलम होश में आता हूँ मैं

मेरी ख़ातिर अब वो तकलीफ़-ए-तजल्ली क्यूँ करें
अपनी गर्द-ए-शौक़ में ख़ुद ही छुपा जाता हूँ मैं

दिल मुजस्सम शेर-ओ-नग़्मा वो सरापा रंग-ओ-बू
क्या फ़ज़ाएँ हैं कि जिन में हल हुआ जाता हूँ मैं

ता-कुजा ज़ब्त-ए-मोहब्बत ता-कुजा दर्द-ए-फ़िराक़
रहम कर मुझ पर कि तेरा राज़ कहलाता हूँ मैं

वाह-रे शौक़-ए-शहादत कू-ए-क़ातिल की तरफ़
गुनगुनाता रक़्स करता झूमता जाता हूँ मैं

या वो सूरत ख़ुद जहान-ए-रंग-ओ-बू महकूम था
या ये आलम अपने साए से दबा जाता हूँ मैं

देखना इस इश्क़ की ये तुरफ़ा-कारी देखना
वो जफ़ा करते हैं मुझ पर और शरमाता हूँ मैं

एक दिल है और तूफ़ान-ए-हवादिस ऐ 'जिगर'
एक शीशा है कि हर पत्थर से टकराता हूँ मैं
– जिगर मुरादाबादी
8
अब तो ये भी नहीं रहा एहसास
दर्द होता है या नहीं होता

इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा
आदमी काम का नहीं होता

टूट पड़ता है दफ़अ'तन जो इश्क़
बेश-तर देर-पा नहीं होता

वो भी होता है एक वक़्त कि जब
मा-सिवा मा-सिवा नहीं होता

हाए क्या हो गया तबीअ'त को
ग़म भी राहत-फ़ज़ा नहीं होता

दिल हमारा है या तुम्हारा है
हम से ये फ़ैसला नहीं होता

जिस पे तेरी नज़र नहीं होती
उस की जानिब ख़ुदा नहीं होता

मैं कि बे-ज़ार उम्र भर के लिए
दिल कि दम-भर जुदा नहीं होता

वो हमारे क़रीब होते हैं
जब हमारा पता नहीं होता

दिल को क्या क्या सुकून होता है
जब कोई आसरा नहीं होता

हो के इक बार सामना उन से
फिर कभी सामना नहीं होता
– जिगर मुरादाबादी

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9
आँखों में बस के दिल में समा कर चले गए
ख़्वाबीदा ज़िंदगी थी जगा कर चले गए

हुस्न-ए-अज़ल की शान दिखा कर चले गए
इक वाक़िआ' सा याद दिला कर चले गए

चेहरे तक आस्तीन वो ला कर चले गए
क्या राज़ था कि जिस को छुपा कर चले गए

रग रग में इस तरह वो समा कर चले गए
जैसे मुझी को मुझ से चुरा कर चले गए

मेरी हयात-ए-इश्क़ को दे कर जुनून-ए-शौक़
मुझ को तमाम होश बना कर चले गए

समझा के पस्तियाँ मिरे औज-ए-कमाल की
अपनी बुलंदियाँ वो दिखा कर चले गए

अपने फ़रोग़-ए-हुस्न की दिखला के वुसअ'तें
मेरे हुदूद-ए-शौक़ बढ़ा कर चले गए

हर शय को मेरी ख़ातिर-ए-नाशाद के लिए
आईना-ए-जमाल बना कर चले गए

आए थे दिल की प्यास बुझाने के वास्ते
इक आग सी वो और लगा कर चले गए

आए थे चश्म-ए-शौक़ की हसरत निकालने
सर-ता-क़दम निगाह बना कर चले गए

अब कारोबार-ए-इश्क़ से फ़ुर्सत मुझे कहाँ
कौनैन का वो दर्द बढ़ा कर चले गए

शुक्र-ए-करम के साथ ये शिकवा भी हो क़ुबूल
अपना सा क्यूँ न मुझ को बना कर चले गए

लब थरथरा के रह गए लेकिन वो ऐ 'जिगर'
जाते हुए निगाह मिला कर चले गए
– जिगर मुरादाबादी
10
मोहब्बत में ये क्या मक़ाम आ रहे हैं
कि मंज़िल पे हैं और चले जा रहे हैं

ये कह कह के हम दिल को बहला रहे हैं
वो अब चल चुके हैं वो अब आ रहे हैं

वो अज़-ख़ुद ही नादिम हुए जा रहे हैं
ख़ुदा जाने क्या क्या ख़याल आ रहे हैं

हमारे ही दिल से मज़े उन के पूछो
वो धोके जो दानिस्ता हम खा रहे हैं

जफ़ा करने वालों को क्या हो गया है
वफ़ा कर के भी हम तो शर्मा रहे हैं

वो आलम है अब यारो अग़्यार कैसे
हमीं अपने दुश्मन हुए जा रहे हैं

मिज़ाज-ए-गिरामी की हो ख़ैर या-रब
कई दिन से अक्सर वो याद आ रहे हैं
– जिगर मुरादाबादी
11
इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था

मस्त-ए-जाम-ए-शराब होना था
बे-ख़ुद-ए-इज़्तिराब होना था

तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था

आओ मिल जाओ मुस्कुरा के गले
हो चुका जो इताब होना था

कूचा-ए-इश्क़ में निकल आया
जिस को ख़ाना-ख़राब होना था

मस्त-ए-जाम-ए-शराब ख़ाक होते
ग़र्क़-ए-जाम-ए-शराब होना था

दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगा-रंग
उस को सादा किताब होना था

हम ने नाकामियों को ढूँड लिया
आख़िरश कामयाब होना था

हाए वो लम्हा-ए-सुकूँ कि जिसे
महशर-ए-इज़्तिराब होना था

निगह-ए-यार ख़ुद तड़प उठती
शर्त-ए-अव्वल ख़राब होना था

क्यूँ न होता सितम भी बे-पायाँ
करम-ए-बे-हिसाब होना था

क्यूँ नज़र हैरतों में डूब गई
मौज-ए-सद-इज़्तिराब होना था

हो चुका रोज़-ए-अव्वलीं ही 'जिगर'
जिस को जितना ख़राब होना था
– जिगर मुरादाबादी
12
दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया

जब कोई ज़िक्र-ए-गर्दिश-ए-अय्याम आ गया
बे-इख़्तियार लब पे तिरा नाम आ गया

ग़म में भी है सुरूर वो हंगाम आ गया
शायद कि दौर-ए-बादा-ए-गुलफ़ाम आ गया

दीवानगी हो अक़्ल हो उम्मीद हो कि यास
अपना वही है वक़्त पे जो काम आ गया

दिल के मुआमलात में नासेह शिकस्त क्या
सौ बार हुस्न पर भी ये इल्ज़ाम आ गया

सय्याद शादमाँ है मगर ये तो सोच ले
मैं आ गया कि साया तह-ए-दाम आ गया

दिल को न पूछ मारका-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ में
क्या जानिए ग़रीब कहाँ काम आ गया

ये क्या मक़ाम-ए-इश्क़ है ज़ालिम कि इन दिनों
अक्सर तिरे बग़ैर भी आराम आ गया

अहबाब मुझ से क़त-ए-तअल्लुक़ करें 'जिगर'
अब आफ़्ताब-ए-ज़ीस्त लब-ए-बाम आ गया
– जिगर मुरादाबादी
13
दिल गया रौनक़-ए-हयात गई
ग़म गया सारी काएनात गई

दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र
लब तक आई न थी कि बात गई

दिन का क्या ज़िक्र तीरा-बख़्तों में
एक रात आई एक रात गई

तेरी बातों से आज तो वाइ'ज़
वो जो थी ख़्वाहिश-ए-नजात गई

उन के बहलाए भी न बहला दिल
राएगाँ सई-ए-इल्तिफ़ात गई

मर्ग-ए-आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन
इक मसीहा-नफ़स की बात गई

अब जुनूँ आप है गरेबाँ-गीर
अब वो रस्म-ए-तकल्लुफ़ात गई

हम ने भी वज़-ए-ग़म बदल डाली
जब से वो तर्ज़-ए-इल्तिफ़ात गई

तर्क-ए-उल्फ़त बहुत बजा नासेह
लेकिन उस तक अगर ये बात गई

हाँ मज़े लूट ले जवानी के
फिर न आएगी ये जो रात गई

हाँ ये सरशारियाँ जवानी की
आँख झपकी ही थी कि रात गई

जल्वा-ए-ज़ात ऐ मआ'ज़-अल्लाह
ताब-ए-आईना-ए-सिफ़ात गई

नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हम से
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई

क़ैद-ए-हस्ती से कब नजात 'जिगर'
मौत आई अगर हयात गई
– जिगर मुरादाबादी
14
आँखों का था क़ुसूर न दिल का क़ुसूर था
आया जो मेरे सामने मेरा ग़ुरूर था

तारीक मिस्ल-ए-आह जो आँखों का नूर था
क्या सुब्ह ही से शाम-ए-बला का ज़ुहूर था

वो थे न मुझ से दूर न मैं उन से दूर था
आता न था नज़र तो नज़र का क़ुसूर था

हर वक़्त इक ख़ुमार था हर दम सुरूर था
बोतल बग़ल में थी कि दिल-ए-ना-सुबूर था

कोई तो दर्दमंद-ए-दिल-ए-ना-सुबूर था
माना कि तुम न थे कोई तुम सा ज़रूर था

लगते ही ठेस टूट गया साज़-ए-आरज़ू
मिलते ही आँख शीशा-ए-दिल चूर चूर था

ऐसा कहाँ बहार में रंगीनियों का जोश
शामिल किसी का ख़ून-ए-तमन्ना ज़रूर था

साक़ी की चश्म-ए-मस्त का क्या कीजिए बयान
इतना सुरूर था कि मुझे भी सुरूर था

पलटी जो रास्ते ही से ऐ आह-ए-ना-मुराद
ये तो बता कि बाब-ए-असर कितनी दूर था

जिस दिल को तुम ने लुत्फ़ से अपना बना लिया
उस दिल में इक छुपा हुआ नश्तर ज़रूर था

उस चश्म-ए-मय-फ़रोश से कोई न बच सका
सब को ब-क़दर-ए-हौसला-ए-दिल सुरूर था

देखा था कल 'जिगर' को सर-ए-राह-ए-मय-कदा
इस दर्जा पी गया था कि नश्शे में चूर था
– जिगर मुरादाबादी
15
जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं
वही दुनिया बदलते जा रहे हैं

निखरता आ रहा है रंग-ए-गुलशन
ख़स ओ ख़ाशाक जलते जा रहे हैं

वहीं मैं ख़ाक उड़ती देखता हूँ
जहाँ चश्मे उबलते जा रहे हैं

चराग़-ए-दैर-ओ-काबा अल्लाह अल्लाह
हवा की ज़िद पे जलते जा रहे हैं

शबाब ओ हुस्न में बहस आ पड़ी है
नए पहलू निकलते जा रहे हैं
– जिगर मुरादाबादी
तो ये थीं जिगर मुरादाबादी की कुछ ग़ज़लें। लेकिन जब बात आती है जिगर मुरादाबादी की शायरी की तो वो बिना उनके तन्हा अश'आर के अधूरी है। तो चलिए, अब हम उनके कुछ चुनिंदा अश'आर भी पढ़ते हैं।

जिगर मुरादाबादी के चुनिंदा अश'आर 

उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे
– जिगर मुरादाबादी
मिरी ज़िंदगी तो गुज़री तिरे हिज्र के सहारे
मिरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना
– जिगर मुरादाबादी
हम ने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका
मुस्कुरा कर तुम ने देखा दिल तुम्हारा हो गया
– जिगर मुरादाबादी
जहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए
घट गए इंसाँ बढ़ गए साए
– जिगर मुरादाबादी
इब्तिदा वो थी कि जीना था मोहब्बत में मुहाल
इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया
– जिगर मुरादाबादी
हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
– जिगर मुरादाबादी
जो तूफ़ानों में पलते जा रहे हैं
वही दुनिया बदलते जा रहे हैं
– जिगर मुरादाबादी
दोनों हाथों से लूटती है हमें
कितनी ज़ालिम है तेरी अंगड़ाई
– जिगर मुरादाबादी
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
– जिगर मुरादाबादी
उस ने अपना बना के छोड़ दिया
क्या असीरी है क्या रिहाई है
– जिगर मुरादाबादी
आबाद अगर न दिल हो तो बरबाद कीजिए
गुलशन न बन सके तो बयाबाँ बनाइए
– जिगर मुरादाबादी
गुदाज़-ए-इश्क़ नहीं कम जो मैं जवाँ न रहा
वही है आग मगर आग में धुआँ न रहा
– जिगर मुरादाबादी
गुनाहगार के दिल से न बच के चल ज़ाहिद
यहीं कहीं तिरी जन्नत भी पाई जाती है
– जिगर मुरादाबादी
दिल गया रौनक़-ए-हयात गई
ग़म गया सारी काएनात गई
– जिगर मुरादाबादी
हूँ ख़ता-कार सियाहकार गुनहगार मगर
किस को बख़्शे तिरी रहमत जो गुनहगार न हो
– जिगर मुरादाबादी
तो दोस्तों, उम्मीद करता हूँ कि आपको ये पोस्ट "Jigar Moradabadi Shayari Collection" पसंद आई होगी। आप मुझे कॉमेंट बॉक्स के ज़रिए ज़रूर बताएँ कि कौन सी ग़ज़ल या कौन सा शे'र आपको सबसे ज़ियादा पसंद आया। अंत तक बने रहने के लिए शुक्रिया।