तन्हाई
खोलते ही घर का दर आ जाती है
चेहरे पे मुस्कान ले के ख़ामुशी
ख़ूबसूरत जितनी उतनी ही बला
मेज़ पे भी कमरे के बिस्तर पे भी
वो है दीवारों की तस्वीरों में भी
चुप रहूँ तो उससे बातें होती हैं
झेलता हूँ ये ज़बरदस्ती मैं रोज़
दिखते हैं फिर अश्क पिछली रात के
लगता है तब मर गई तन्हाई अब
पर वो रेज़ा-रेज़ा ज़िंदा रहती है
उसके दिल में अश्क रक्खे हैं मेरे
और उसका दिल मेरी आँखों में है
जब तलक आँखें खुली रखता हूँ मैं
तब तलक वो दिल धड़कता रहता है
वो ख़मोशी वो कसक और वो ख़ला
जिसके मरकज़ में सरापा क़ैद हूँ
सब वहीं होते हैं बिस्तर के क़रीब
कैसे झुटलाऊँ उन्हें मैं और क्यों
कट गया इक और दिन इस आस में
जब उठूँ कल तो कोई हो पास में
- Achyutam Yadav 'Abtar'
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