ज़िंदगी अफ़सुर्दगी से हार जाती है
धूप ख़ंजर घोंपती है रोज़ सीने में
आहटें जुट जाती हैं सब ख़ून पीने में
उठती हैं दहशत-ज़दा लहरें पसीने में
तल्ख़ियाँ ही तल्ख़ियाँ होती हैं जीने में
हौसला करके कब इनके पार जाती है
ज़िंदगी अफ़सुर्दगी से हार जाती है
जिस्म हो जाता है बे-हिस रूह भी बेताब
थम से जाते हैं ये एहसासात के सैलाब
ख़्वाबों के चेहरों पे पड़ते रहते हैं तेज़ाब
टूटते रहते हैं होठों के गुल-ए-शादाब
रफ़्ता-रफ़्ता रौनक़ों को मार जाती है
ज़िंदगी अफ़सुर्दगी से हार जाती है
सब गुहारें रहती हैं दिल की हिरासत में
कट ही जाता है गला आहों का वहशत में
वार करती है ज़िहानत दिल पे ख़ल्वत में
काँपती है नींद पूरी रात आफ़त में
ख़ार से कुछ नक़्स दिल पे वार जाती है
ज़िंदगी अफ़सुर्दगी से हार जाती है
दर्द दाइम है उमीदों को बताए कौन
ख़ाक आँखों में नई आतिश जलाए कौन
सदमों की ज़द से सलामत बच के जाए कौन
बे-बसी की ये ज़मीं बंजर बनाए कौन
मश्क़ ख़ुशबीनी की भी बे-कार जाती है
ज़िंदगी अफ़सुर्दगी से हार जाती है
- Achyutam Yadav 'Abtar'
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