Ad Code

एक वीरान मंज़िल - नज़्म

एक वीरान मंज़िल - नज़्म by Achyutam Yadav


एक वीरान मंज़िल


तुम मुझे मंज़िल समझते हो किसी की
क्यों नहीं फिर देखते हो
एक मुद्दत से मेरे दिल पे जमी धूल
इक भी नक्श-ए-पा नहीं जिसपे किसी के
आश्ना है जो फ़क़त तन्हाई से ही
एक पगडंडी सी शायद
जिसपे चलना भी हो ज़हमत
जाती है जो एक सदमे की वबा तक
सर-ब-सर गुम है वजूद उसका जहाँ पे
और फिर भी
तुम मुझे मंज़िल समझते हो किसी की
क्यों समझते हो तुम ऐसा?

 - Achyutam Yadav 'Abtar'



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ